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________________ [87 हे देव ! अंपने कार्य में अनुरक्त कवि की वाणी का रस नहीं वर्णन करने योग्य बातों का वर्णन करने रूप दोष से दूषित होते हुए भी भी कतक-जल को स्वच्छ बनानेवाली वनस्पति के चूर्ण के समान आप के गुणस्तवन से अवश्य ही निर्मल बन जाता है / / 3 // गुणास्त्वदीया अमिता इति स्तुता - वुदासते देव ! न धीधना जनाः / मणिष्वनन्तेषु महोदधेरहो, ____न किं प्रवृत्तेरुपलम्भसम्भवः ? // 4 // . ह देव ! अापके गुण अनन्त हैं अतः हम किस-किस का कहाँ तक वर्णन करें? ऐसा सोचकर बुद्धिमान् लोग आपकी स्तुति करने में उदासीन नहीं होते हैं, क्यों कि समुद्र में अनन्त मरिणयों के रहते हुए भी किसी मरिण-विशेष की प्राप्ति उपाय से सम्भव नहीं है क्या? / / 4 / / भवद्गुणैरेव न चेदवेष्टयं, स्वयं गिरं चित्रकवल्लिमुच्चकैः। तदा न किं दुर्जनवायसरसौ, क्षणाद् विशीर्यंत निसर्गभीषणः // 15 // हे देव ! यदि मैं अपनी चित्रकवल्लीरूप वाणी को आपके गुणों के स्तवन से ही स्वयं आवेष्टित न करूँ तो स्वभाव से ही भयङ्कर दुष्ट कौनों के द्वारा वह वाणी तत्काल नष्ट नहीं कर दी जाएगी क्या ? अर्थात् चित्रक की लता यदि वृक्ष से लिपटी हुई न रहे तो उसे कौए जैसे काट-काट कर नष्ट कर देते हैं वैसे ही यदि आपके गुणस्तवनरूप वृक्ष में मैं अपनी वाणीरूप लता को आवेष्टित नहीं करूँ तो उसे भी दुष्ट कौए रूपी व्यर्थ के प्रलाप नष्ट कर डालेंगे // 5 // न जायते नाथ ! यथा पथः स्थिति, प्रगल्भमानाश्च नृपानुपासते।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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