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________________ [ 57 हे पार्श्वजिनेश्वर ! कामदेव यदि अपनी शिवजी द्वारा प्राप्त पीडा का पूनः पुन: स्मरण कर (यह समझ कर कि-चलो भगवान् जिनेश्वर को भव-रिपु माना जाता है, अतः वे मुझे शरण देंगे) आपके समक्ष आता है तो आपके भी भव-संसार के रिपु अर्थात् संसार से मुक्ति दिलानेवाले होने के कारण वह उसी दशा को प्राप्त होता है। इसलिये खेद है कि "पुण्यहीन व्यक्तियों के शत्रु और मित्र दोनों ही समान होते हैं" संसार में यह बात प्रसिद्ध है। हम क्या कहें ? // 7 // दृशां प्रान्तः कान्तैन हि वितनुषे स्नेहघटनां, प्रसिद्धस्ते हस्ते न खलु कलितोऽनुग्रहविधिः / भवान् दाता चिन्तामरिणरिव समाराधनकृतामिदं मत्वा स त्वादधति तव धर्मे दृढरतिम् // 8 // हे जिनेश्वर ! अाप नेत्रों के कमनीय कटाक्षों से प्रेम-रचना नहीं करते हैं, आपके हाथ में भी प्रसिद्ध अनुग्रह की मुद्रा नहीं है किन्तु प्राप अपनी आराधना करनेवाले जनों को चिन्तामरिग के समान अभीष्ट फल प्रदान करते हैं, यह जानकर प्राणी आपके धर्म में दृढ अनुराग रखते हैं // 8 // स सेवाहेवाकैः श्रित इह परैर्यः शुभकृते, नियन्ता हन्तायं सजति गृहिणी गाढमुरसा। भवेदस्मात् कस्मात् फलमनुचितारम्भरभसाल्लतावृद्धिर्न स्याद् दवदहनतो जातु जगति // 6 // .हे जिनेश्वर ! सेवाभावी अन्यमतावलम्बियों ने अपने कल्याण के लिये जिस दूसरे देव का आश्रय लिया वह, खेद है कि (अपने उस आश्रय के फलस्वरूप) यम-नियम से युक्त होकर भी स्त्री के वक्षः
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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