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________________ पाहार्यदेवान् भजतां सरागाँस्त्वद्वेषिरणां चेतसि या मुमुक्षा। अज्ञानभाजां किल सा जनानां, तृप्याथनां शलशिलाबुभुक्षा // 3 // हे देव ! रागयुक्त कृत्रिम देवताओं के प्रति आसक्ति रखनेवाले आपके विरोधियों की जो मुक्ति कामना है, वह तृप्ति की इच्छावाले अज्ञानी जनों की पर्वतशिला को खाने की इच्छा के समान है / / 3 // परेषु देवत्वमुपेत्य देव !, मूढा विमूढेषु हिताथिनो ये। प्रारोपितादित्यगुरणेन तेषां, खद्योतपोतेन कृतार्थताऽस्तु // 4 // .. हे देव ! जो अविवेकी मोहयुक्त अन्य देवों में देव के गुण-धर्म को मानकर अपना हित चाहते हैं उनकी सूर्य के गुणों से आरोपित जुगनू के शिशु के समान कृतार्थता हो, अर्थात् वे सूर्य को छोड़ कर जुगनू को सूर्य मानते हैं // 4 // त्वदर्शनाय स्वहिताथिनोऽपि, द्रुह्यन्ति ये नाम जिनेश ! मूढाः / -मोहेन पीयूषमपि त्यजद्भिः, पिपासुभिस्ते सह तोलनोयाः // 5 // हे जिनेश्वर ! जो अज्ञानी अपने हित की इच्छा रखते हुए भी आपके दर्शन के लिए द्वेष करते हैं- (आपके स्याद्वाद दर्शन का विरोध करते हैं) वे अज्ञानवश अमृत का त्याग करनेवाले प्यासे व्यक्तियों की समानता में गिने जाने चाहिए // 5 // त्वत्सेविनां दैशिकशासने भ्यो, ये नाम वाचं न विशेषयन्ति / जागर्तु तेषां भृशमन्धकार-प्रकाशयोरप्यविशेष-बुद्धिः // 6 // हे देव! दैशिकशासनों से आपके सेवकों की वाणी का जो लोग आदर नहीं करते हैं, उन लोगों की अन्धकार और प्रकाश में भी समानबुद्धि निरन्तर जागती रहे // 6 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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