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________________ 5 आवश्यकचूणी रत्नदृष्टांतः : : 77 “पणिहाण जोगजुत्तो पंचहि सम इहिं तिहिं गुत्तिहि" इत्यादि चारित्राचारनो भंग करे, अने शोभामाटे स्नान करे, औषध आपवा विगेरे वैदकना कामो करे अने प्रश्न विद्याप्रमुखना बलथी कारण विना पोताने मनाववा पूजाववा माटे निमित्तादिक कहे अने जातिकुलप्रमुखथी आजिवीका करे अने कपटनो भंडार अने स्त्रीप्रमुखना अंगलक्षण कहे, नीच मार्गे मंत्रादिकना काम करे इत्यादि चारित्रने दूषण लगाडवाना कार्य करवाथी चारित्रकुशील जाणवो, ए प्रमाणे कुशीलनुं स्वरूप. जाणवू. 3 / हवे संसक्तनुं स्वरूप कहे छे-जे जे ठेकाणे जाय त्यां तेना जेवो थइ जाय अने नाटकीयानी जेम बहुरूपी थइने फरे अने श्रीतीर्थंकरमहाराजाना वेषने वगोवे ते अशुभसंसक्तो कहेवाय छे, केमके आगमना अर्थो बे प्रकारे छे-शुभ अने अशुभ, तेमां जो महाव्रतादि मूलगुणमां तथा पिंडविशुद्धि प्रमुख उत्तरगुणमां थतां दोषोने निवारनार शुद्धयोगीपुरुषोनी साथे एटले संवेगी पुरुषोना साथे आगमनो अर्थ मल्यो होय तो शुभरीते परिणमवाथी शुभ कहेवाय छे, अने तेहिज आगमनो अर्थ जो पासत्थादिसाथे मल्यो होय तो प्राये करी अशुभरीते परिणमवाथी अशुभ कहेवाय
SR No.004393
Book TitleNarbhavdrushtantopnaymala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1996
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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