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________________ पोषधविधि। (3) कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या परिहरु (मस्तके) (3) रसगारव, ऋद्धि गारव, सातागारव परिहरु ( मुखे ) (3) मायाशल्य, नियागशल्प, मिथ्यात्वशल्य परिहरु (हृदये) (2) क्रोध, मान परिहरु ( बायी भुजा के पीछे ) (2) माया, लोभ, परिहरूं ( दाहिनी भुजा के पीछे ) (3) पृथ्वी काय, अकाय, तेउकायनी जयणा करूं ( बाये पग पर ) . (3) वाउकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकायनी रक्षा करूं ( दाहि ने पग पर) इन बोलों को बोलने के साथ किस प्रकार पडिलेहणा करनी इसका यथार्थ अनुभव इसके जानकार से हो सकता है तो भी थोडा सा खुलासा यहां देना उचित समझा जाता है / ____ आरम्भ के 7 बोल मुहपत्ति को खोल किनारी वाले दो कोनों से पकड कर प्रदक्षिणारूप में तीन बार फिराते हुए बोलना चाहिये / आगे के 'सुदेव' से 'कायदण्ड परिहरु पर्यन्त के 18 बोल मुहपति को दाहिने हाथ की अंगुलियों के अन्तरों में पकड कर बाये हाथ की हथेली में फिराते हुए बोले जाते हैं / 'आदर वाले बोल बोलते समय मुहपत्ति को हथेली में ऊपर की तरफ चढाया जाता है, और 'परिहरुं वाले बोलते समय अंगुलियों की तरफ नीचे उतारा जाता है / यहां तक के 25 बोल मुहपत्तिपडिलेहणासम्बन्धी हैं। 'हास्य' से
SR No.004391
Book TitleJain Gyan Gun Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyavijay
PublisherKavishastra Sangraha Samiti
Publication Year1936
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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