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________________ 232 3 स्तवनसंग्रह . काल लब्धि नही मति गणो, भाव लब्धि तुम हाथे रे / लडथडतुं पण गयबचुं, गाजे गयवर साथे रे, संभव० // 4 // देशो तो तुमहीज भलं, बीजा तो नवि जाचुं रे। वाचकजस कहे सांइशु, फलशे एह मुज साचुं रे, संभव० // 5 // श्री संभव जिन स्तवन (अंतरजामी सुण अलवेसर यह चाल) समकित दाता समकित आपो, मन मागे थइ धीहुँ / छति वस्तु देतां शुं शोचो, मीठं छे सहुए दीहूं। प्यारा प्राणथकी छो राज, संभव जिनवर मुजने / आं० // 1 इम जाणो जे आपे लहिये, ते लाधुं शुं लेवें / पण परमारथ प्रीछी आपे, तेहज कहिये देवू, प्यारा० // 2 // अर्थी हुँ तूं अर्थ समर्पक, इम मत करजो हांसुं / प्रकट न हतुं तुमने पण पहिलां, ए हांसानुं पासुं, प्यारा०॥३॥ परम पुरुष तुमें प्रथम भजीने, पाम्या ए प्रभुताई। तिण रूपें तुमने इम भजिये, तिणें तुम हाथ वडाई, प्या०॥४॥
SR No.004391
Book TitleJain Gyan Gun Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyavijay
PublisherKavishastra Sangraha Samiti
Publication Year1936
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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