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________________ 48 वह पापाचरण करने में उत्साह रहित हो जाता है 2. एवं पूर्वोपाजित कर्मों का क्षय करके संसार अटवी को पार कर मुक्त हो जाता है। (33) सामुहिक आहार पानी का त्याग करने से-- 1. श्रमण परावलंबन से मुक्त होता है 2. स्वावलंबी बनता है 3. वह स्वयं के लाभ से संतुष्ट रहने में अभ्यस्त हो जाता है और 4. परलाभ की आशाओं से मुक्त हो जाता है / 5. संयम ग्रहण करना इस जीवन की प्रथम सुख शय्या है तो उसमें सामूहिक आहार का त्याग करना जीवन की दूसरी सुखशय्या है। अर्थात संयम की साधना के साथ सामुहिक आहार का स्थाग करके साधक अनुपम सुख समाधि प्राप्त करता है। (34) संयम जीवन में शरीरोपयोगी वस्त्रादि उपकरणों को अल्प करने या त्याग करने से--१. जीव को उस उपधि संबंधी लाना, रखना, संभालना, प्रतिलेखन, करना एवं समय पर उसके सम्बन्धी अनेक सुधार संस्कार आदि कार्यों के करने से मुक्ति मिलती है 2. जिससे प्रमाद और विराधना घटती है। 3. स्वाध्याय की क्षति का बचाव होता है। 4. उपधि सम्बन्धी आकांक्षाए नहीं रहती है / 5. और ऐसे अभ्यस्त जीव को उपधि की अनुपललिब्ध होने पर कभी संक्लेश नहीं होता है। (35) आहार का त्याग करते रहने से अथवा आहार को घटाते रहने से--१. जीने के मोह का क्रमशः छेदन होता है 2. तथा वह जीव पाहार की अनुपलब्धि होने पर संक्लेश को प्राप्त नहीं होती है किन्तु 3. उस परिस्थिति में भी प्रसन्नचित्त रह सकता है / 4. दीन नहीं बनता है / (36) कषायों के प्रत्याख्यान का अभ्यास करते रहने से-- 1. प्राणी वीतराग भाव के समकक्ष भावों की उपलब्धि करता है
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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