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________________ 78 धार्मिक-वहीवट विचार बढ़ा दे तो, वह व्यक्ति भगवानकी घोर आशातना करता है / भगवानके सेवक भी, अपनी ऐसी भक्तिसे कभी प्रसन्न नहीं होते / उपरसे भगवानका मूल्य इस प्रकार घटानेवालोंके प्रति वे गुस्सेवाले होते हैं / ये तो उनका सम्यग्दर्शन है / भगवानके दास स्वरूप सम्यग्दृष्टि देवदेवियोंको भगवानके मंदिरमें जो बैठाये जाते हैं, वे परमात्माके भक्त हैं, इस गौरवके कारण उन्हें वह स्थान मिल पाया है, नहीं कि उनकी नवांग पूजा करनेके लिए / वे श्रावक जैसे ही प्रभुभक्त हैं / प्रभुभक्तोंको केवल ललाटमें तिलक किया जाता है, जैसे संघपूजनमें श्रावक-श्राविकाओंके ललाटमें तिलक किया जाय वैसे / जो लोग परमात्माकी अपेक्षा, उनका महत्त्व अधिक बढ़ाते हैं / उनकी आरती आदिका घी ज्यादा बोलते हैं; वे परमात्माकी सर्वहितकारी शक्तिमें विश्वास नहीं रखते / भगवान वीतराग होनेसे कुछ भी कर नहीं पाते, देवदेवियाँ ही रागयुक्त होनेसे भक्तों पर प्रसन्न होते हैं और सब कुछ मनचाहा प्राप्त करा देते है, ऐसी वैसे देव-भक्तोंकी मान्यताके मूलमें गैरसमज भरी पडी है / उनकी यह भारी अज्ञानता है / भगवंतोकी अचिन्त्य शक्तिका उन्हें जरा भी परिचय नहीं / ऐसे भक्त जैन संघमें परमात्माके प्रति आदर कम करानेमें अनजानेमें भी शामिल हुए हैं / प्रश्न :- (38) शिखरकी ध्वजाकी बोली वंशपरंपरागत बोली जाय यही अच्छी है या प्रतिवर्ष बोली जाय वह ठीक मानी जाय ? उत्तर :- हिंसादिकार्योमें रकमका उपयोग करनेवाली बैंकोमें देवद्रव्यके पैसे जमा न हो, ऐसा करना आवश्यक बना है। वारसागत बोलीमें बडी रकम प्राप्त होगी, लेकिन वह बैंकमें जमा हो / उसका सूद ही उपयोगमें लिया जाय, अतः उसकी अपेक्षा प्रतिवर्ष बोली, बोली जाय वह ठीक होगा; फिर भी इसका निर्णय, व्यक्तिगत संघ, देरासर आदिको ध्यानमें रखकर लेना चाहिए / प्रश्न :- (39) देरासरमें विद्युतके लाईट-पंखे इत्यादिका उपयोग किया जाना उचित है ? उत्तर : नहीं / उपयोग होना न चाहिए / गर्भगृहमें शुद्ध घीके दीप जलते हों / रंगमंडपमें नारियलके तैलके दीप जलते हों ऐसी परंपरा थी / ऐसे घीके दियोंसे दो लाभ थे / उसकी अप्रतिम सुगंध भक्तके दिलोदिमागको तरबतर कर देती थी, जिससे भक्तजन भक्तिरसमें सहजरूपसे भरपूर
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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