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________________ धार्मिक-वहीवट विचार होने से उसके विसर्जन करनेकी आवश्यकता नहीं; क्योंकि लेप या ओपसे भी उस भागकी संधि हो जाती है / उसमें भी यदि प्रतिमा विशिष्ट प्रभावशाली हो अथवा उसके उपर तीर्थरक्षादि कार्यमें अदालती कार्यमें उपयुक्त हो, ऐसा सुंदर ऐतिहासिक लेख हो तो, उसका, उस हालतमें विसर्जन न कर, लेप लगवाकर उस अंगकी संधि द्वारा अखंड-सा बनाया जाय / नवखंडा (घोघा) पर्श्वनाथ भगवानके नव टुकडे हो गये थे / जिन्हें लेप द्वारा जुडे गये हैं / दीखने में भद्दे मालूम हो, उस ढंगसे खंडित हुए भगवानको सामान्यतः मूलनायकके रूपमें रखे न जाय / .. _ दूसरी बात यह है कि मूलनायक भगवंतको प्रतिष्ठित करने के बाद, हिल गये हो तो विधिपूर्वक महोत्सव के साथ पुनः प्रतिष्ठित कराने चाहिए (उसी पुण्यशाली के हाथ), लेकिन यदि उसके सिवाकी प्रतिमा हिल गयी हो तो सामान्य विधि से ही प्रतिष्ठित कर दें। प्रश्न : (4) जिनप्रतिमाको विदेश ले जा सकते हैं ? उत्तर : अभयकुमारने अनार्यदेशमें - राजकुमार आर्द्रको जिनप्रतिमा भेंटरूपमें भिजवायी थी / आज भी जिनप्रतिमा विदेश ले जा सकते है / लेकिन ले जानेकी पूरी विधिका पालन किया जाय / विदेशमें उसकी प्रतिष्ठाविधि भी की जा सकती है (अंजनशलाका विधि तो भारतमें ही किसी विशेष्ट जैनाचार्यके पास ही कराएँ / ) अब यदि विदेशमें उस प्रतिमाकी नित्यपूजा आदि होने की कायमी संभावना न हो तो अंजनशलाका न कराकर, विदेश ले जाकर केवल अठारह अभिषेक कराकर, उस प्रतिमाको दर्शनके लिए रखें / उनकी वासक्षेपपूजा करनी हो तो - किसी भी समय हो सकती है, लेकिन अष्टप्रकारी पूजा नहीं हो सकती / / वास्तवमें तो विदेशमें जाकर धनोपार्जन करनेकी धनमें धर्म गँवानेकी स्थिति आती है / संतोनोंका भविष्य खतरनाक बनता है / अत: धर्मप्रेमीजनोंको तो विदेशका मोह छोडकर हमेशाके लिए स्वदेशमें आकर निवास करना चाहिए / जिससे जिनपूजादि आरामसे हो सके, सद्गुरुका लाभ प्राप्त हो, हितेच्छु मित्रोंकी संगति मिलें। स्वदेश, स्वदेश ही है / विदेशमें परायापन बना रहता है / किसी भी समय विदेशीशासन पहने कपड़ों के साथ निष्कासन करने पर जिनमंदिर पर खतरा बना रहेगा। प्रश्न : (5) अपने पासवाली प्रतिमा, नकरा लेकर किसीको दे सकते हैं ? उसमें दोष नहीं?
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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