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________________ परिशिष्ट-१ 173 उपभोगका प्रायश्चित्त यहाँ निर्दिष्ट नहीं किया / यह बात बिल्कुल असंगत मालूम होती है / मूल गाथामें 'वस्त्रादि' शब्द ही होनेसे टीकाकारने वस्त्रादिका अर्थ बताते हुए 'वस्त्रादि और कनकादि' इतना कह ही दिया है / अब आगे बढ़कर टीकाकारने जहाँ वस्त्रादि' शब्दका प्रयोग किया है वहाँ कनकादि' शब्द नहीं है, उसका कारण तो यह है कि मुँहपत्ति आदि चार बताये हैं, वे मुहपत्ति रूप वस्त्रादि चारों का प्रत्यर्पण क्या करें ? उसके प्रत्युत्तरमें वैद्यको दानादि करना बताया है / ___उपरान्त, यहाँ विक्रम राजा द्वारा समर्पित कोटि सुवर्णको गुरुनिश्रासे युक्त तो कहा ही है, अतः इस प्रकार सुवर्ण भी गुरुद्रव्य बन गया और इसी कारण उसका उपभोग करनेवालेको प्रायश्चित्त (तप + उतने मूल्यका वस्त्रादि दान) भी इसी गाथाकी टीकामें स्पष्ट रूपसे कहा गया है / फिर भी ऐसा कहना कि- 'इस गाथाकी टीकामें वस्त्रादिके उपभोग का प्रायश्चित्त वस्त्रादिदान कहा है अत: सुवर्ण आदिके उपभोगका प्रायश्चित्त वस्त्रादिदान नहीं कहां, यह कारणसे कनकादिके उपभोगके प्रायश्चितरूप उतना धन जीर्णोद्धारमें उपयुक्त करें, यही स्वयं समझना होगा / ' . यह बात बिल्कुल असंगत है / विक्रम राजाके प्रसंगमें उत्पन्न प्रकारसे पूजाहरूपमें धन भी गुरुद्रव्य बनता ही है और इस गुरुद्रव्य का उपभोग करनेवालेको वैद्यादिको वस्त्रादिदानका प्रायश्चित्त जब बताया गया तब यह बात बिलकुल स्पोष्ट हो गयी हैं कि धन आदि गुरूपूजनका द्रव्य साधु-वैयावच्च विभागमें ही जमा किया जाय, अन्यथा गुरु महाराज साधु-वैयावच्च विभागमें व्यय करनेका प्रायश्चित्त न देकर जीर्णोद्धारमें उपयोग करनेका प्रायश्चित्त देते / . द्रव्यसप्ततिका ग्रन्थकी बारहवीं गाथाकी टीकामें स्पष्ट कहा है कि, "यद्यपि भोज्य-भोजकभाव संबंधसे गुरूपूजनका धन आदि गुरुद्रव्य नहीं बन जाते, परंतु पूज्य-पूजक संबंधसे तो धन आदिसे किया गया गुरुपूजन, गुरुद्रव्य ही बनता है / " ये हैं वे शब्द :अत्रापि तक्रकौडिन्यन्यायेन भोज्यभोजकसंबंधान औधिकौपधिवत् पूजाद्रव्यं न भवति / . ' पूज्यपूजासम्बन्धेन तु तद् (स्वर्णादिद्रव्यं ) गुरुद्रव्यं भवत्येव /
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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