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________________ सल्लेखना श्रावक के 12 व्रतों में एक व्रत है। उपासकाध्ययन आचार्य शिवकोटि कृत आचार्य रत्नमाला, वसुनन्दिश्रावकाचार और प्रतिक्रमण में श्रावक के चार शिक्षाव्रतों में देशव्रत का वर्णन न करके चतुर्थ व्रत सल्लेखना बताया गया है। रत्नकरण्डश्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, सागारधर्मामृत आदि में 12 व्रतों का फल अन्त में समाधिमरण करना कहा है। समाधिमरण या सल्लेखना जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है। जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दलदल में फँस जाये तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है। उसकी साधना विराधना में परिवर्तित हो जाती है। आचार्य शिवकोटि ने यहाँ तक लिखा है- ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला साधक यदि मरण के समय में धर्म की विराधना करता है, तो वह अनन्त भव धारण करने वाला देखा गया है किन्तु जो मरण काल में सल्लेखना ग्रहण करता है, वह लोक के समस्त सारभूत सुखों को प्राप्त करता है। मूलाचार के बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव नामक द्वितीय अधिकार में सल्लेखना का निरूपण है। सल्लेखनाधारी संकल्प करता है कि जो कुछ भी मेरा दुश्चरित है, उस सभी का मैं मन, वचन, काय से त्याग करता हूँ और तीन प्रकार के सामायिक (मन, वंचन, कायगत अथवा कृत, कारित, अनुमोदन रूप) को निर्विकल्प रूप से करता हूँ। (क्षेत्र आदि) बाह्य तथा (मिथ्यात्व आदि) आभ्यन्तर परिग्रह को, शरीर आदि को और आहार का मन-वचन काय पूर्वक (कृत, कारित, अनुमोदना रूप) तीनों प्रकार से त्याग करता हूँ। समस्त प्राणिवध, असत्यवचन, सम्पूर्ण अदत्तग्रहण, मैथुन तथा परिग्रह को मैं छोड़ता हूँ। सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है। मैं केवल वैर का ही त्याग नहीं करता हूँ, किन्तु वैर के निमित्त जो भी हैं, उन सबका त्याग करता हूँ। समस्त आशा को छोड़कर मैं समाधि को स्वीकार करता हूँ। * यदि हम श्रमण-जीवन को सूर्य की उपमा से अलंकृत करें तो कह सकते हैं कि आर्हती दीक्षा (जिनेश्वरी दीक्षा) ग्रहण करना श्रमण जीवन का उदय काल है, तो उसके पूर्व की वैराग्य-अवस्था साधक जीवन का उषाकाल है। जब साधक उत्कृष्ट तप-जप व ज्ञान की साधना करता है उस समय उसकी श्रमण जीवन की साधना का मध्याह्न काल होता है और जब साधक सल्लेखना प्रारम्भ करता है तब उसका सन्ध्या काल होता है। सूर्योदय के समय पूर्व दिशा मुस्कराती है, उषासुन्दरी का दृश्य अत्यन्त लुभावना होता है। उसी प्रकार सन्ध्या के समय पश्चिम प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 .00 91
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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