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________________ मुझे मरण से क्या चिन्ता है ? ऐसा चिन्तन करता हुआ साधक शास्त्रोक्त समाधिमरण या सल्लेखना की विधिपूर्वक शरीर छोड़ने में प्रयत्नशील होता है। साधक को जितना महत्त्व जीवन-शुद्धि का है, उससे अधिक महत्त्व मरण-शुद्धि का है। सल्लेखना शब्द सत् और लेखना-इन दो शब्दों के संयोग से बना है। सत् का अर्थ सम्यक् और लेखना का अर्थ तनुकरण अर्थात् कृश करना है। बाह्य शरीर और आभ्यन्तर कषायों के कारणों को निवृत्तिपूर्वक क्रमशः भली प्रकार क्षीण करना सल्लेखना है। इस मारणान्तिक सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करना चाहिए। पंचास्तिकाय में द्रव्य-भाव सल्लेखना का सुन्दर लक्षण दिया गया है कि आत्मसंस्कार के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कषाय रहित अनन्तज्ञानादि गुण लक्षण परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है और उस भाव सल्लेखना के लिए काय-क्लेश रूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजनादि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों प्रकार का आचरण करना सल्लेखना काल है। आचार्य शिवकोटि काय और कषाय की कृशता मुख्य रूप से भक्त-प्रत्याख्यान के माध्यम से ही स्वीकार करते हैं। भक्त-प्रत्याख्यान ही सल्लेखना है। सल्लेखना को ही समाधिमरण कहा है। उन्होंने सल्लेखना की पूरी प्रक्रिया भी विवेचित की है। यथा * “सल्लेहणा दिसा खामणा य अससिट्ठि परगणे चरिया। ____ मग्गण सुट्ठिय उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा / / " आचार्य पूज्यपाद ने सल्लेखना की परिभाषा बताई है- सम्यक् प्रकार से काय और कषाय का लेखना करना सल्लेखना है अर्थात् बाह्य सल्लेखना शरीर की और आभ्यन्तरं सल्लेखना कषायों की तथा उत्तरोत्तर काय और कषाय की पुष्टि करने वाले कारणों को घटाते हुए भली-भाँति लेखन करना सल्लेखना है। तात्पर्य यह है कि कदलीघात की तरह एकदम नहीं, किन्तु दुर्भिक्ष आदि के उपस्थित होने पर धर्मरक्षार्थ अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग करके जीवन-मरण की आशा से रहित होकर क्रमशः कृश करते हुए शरीर को छोड़ना सल्लेखना है। सल्लेखना के दो भेद हैं— आभ्यन्तर सल्लेखना और बाह्य सल्लेखना। क्रोधादि कषायों का त्याग करना आभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कृश, क्षीण करना बाह्य सल्लेखना है। इस बाह्य सल्लेखना का निरूपण करते हुए आचार्य कहते हैं कि शरीरेन्द्रियों को पुष्ट करने वाले समस्त रसयुक्त आहारों का त्याग कर नीरस, रूखा आहार करते हुए क्रमशः शरीर को क्षीण करना शरीर-सल्लेखना है। इसका दूसरा अर्थ है- जीवन के अन्तिम समय में सर्व प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग कर अपने आप में लीन होकर साम्यभाव से मृत्यु को स्वीकार करना / राग प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 .. 0089
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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