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________________ दिखाई देते हैं, पर अन्दर से उन्हें इस बात का सन्तोष व हर्ष होता है कि आत्मा की सद्गति हुई है। इसके विपरीत जिसने जीवन भर दुष्कर्म किए हों, खोटा आचरण किया हो, दुर्व्यसनों का सेवन किया हो, दूसरों पर राग-द्वेष करके संक्लेश भाव किए हों, जो दिन-रात खाने-कमाने में ही अटका रहा हो, विषय-कषायों के कंटकाकीर्ण वन में ही भूला-भटका रहा हो, जिसने जीवन भर अरण्य रुदन ही किया हो, उसे तो इन कुकर्मों के फल में कुगति ही होनी है, दुःखदायी संयोगों में ही जाना है। उसकी परिणति भी संक्लेशमय हो जाती है, वह संक्लेश भावों से ही मरता है। उसकी इस चिरविदाई की वेला को दुःखदाई विदाई कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु कभी महोत्सव नहीं बन सकती। ___ मृत्यु को महोत्सव बनानेवाला मरणोन्मुख व्यक्ति तो जीवनभर के तत्त्वाभ्यास के बल पर मानसिक रूप से तैयार होता है और विदाई देनेवाले व्यक्ति भी बाहर में वैसा ही वैरांग्यप्रद वातावरण बनाते हैं, तब कहीं वह मृत्यु महोत्सव बन पाती है। इस वातावरण में परिवार के मोही व्यक्ति भी क्षण भर के लिए वियोगजनित दुःख भूल जाते हैं तथा सभी सुख व संतोष का अनुभव करने लगते हैं। ___ वस्तुतः मृत्यु के समय मरणासन्न व्यक्ति की मनःस्थिति को मोह-राग-द्वेष आदि मनोविकारों से बचाने, पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा परद्रव्य पर अटकनेभटकने से भी बचाने तथा आत्मसम्मुख करने के लिए संसार, शरीर व भोगों की असारता को बताने वाला वैराग्यवर्द्धक तथा संयोगों की क्षणभंगुरता दर्शानेवाला और आत्मा के अजर-अमर व अविनाशी स्वरूप का ज्ञान करानेवाला आध्यात्मिक वातावरण बनाना जरूरी है। इसके बिना मृत्यु-महोत्सव नहीं बन सकती। कभी-कभी परिजन-पुरजन मोह व अज्ञानवश अपने प्रियजनों को मरणासन्न देखकर मरण की सम्भावना से भी रोने लगते हैं, इससे मृत्युसन्मुख व्यक्ति के परिणामों में संक्लेश होने की सम्भावना बढ़ जाती है; जबकि उसे समतापूर्वक निष्कषायभाव, शान्तभावों से देह त्यागने में सहयोग करना चाहिए, तभी मृत्यु महोत्सव बन पाती है। - सभी साधर्मीजनों की मृत्यु महोत्सव बने -इस मंगल भावना के साथ इति शुभ / सन्दर्भ :1. नियमसार, गाथा, 122, 123 2. राजवार्तिक, अध्याय 6, सूत्र 1 3. परमात्मप्रकाश, 2/190 4. भगवती आराधना, वि. 67/194/16 5. महापुराण, 21/226 6. स्याद्वादमंजरी, टीका .17/229/16 7. सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं चारित्रसार 8. सागार धर्मामृत, 9/239 9. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अध्याय 6, श्लोक 1 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 0085
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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