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________________ ममत्व कम करते हुए आहार के आस्वाद से विरक्त हो, रसों की गृद्धता छोड़कर नीरस आहार लेना प्रारम्भ करे / एतदर्थ कभी उपवास, कभी एकाशन, कभी नीरस आहार, कभी अल्प आहार (ऊनोदर) - इसतरह क्रम-क्रम से अपनी शक्तिप्रमाण आहार को कम करते हुए दूध पर आवे, दूध से छाछ, छाछ से गर्म पानी तत्पश्चात् पानी का भी त्याग करके देह का त्याग करे— यही काय सल्लेखना है। (2) कषाय सल्लेखना - राग-द्वेष-मोह आदि भावों को एवं क्रोध-मान-माया लोभादि कषायों को कृश करना, कषाय सल्लेखना है। - मृत्यु को महोत्सव बनाने के सम्बन्ध में एक ज्वलन्त और प्रबल प्रश्न है। मृत्यु से सारा विश्व आतंकित रहता है, प्रत्येक प्राणी भयभीत और आकुल-व्याकुल रहता है, कोई भी मरना नहीं चाहता। जो अत्यन्त दुःखद है, जिसके नाम मात्र से लोग थर्राते हैं, थर-थर काँपते हैं, घबराते हैं। यद्यपि सबको गारन्टी से मरना है, यह सब अच्छी तरह जानते हैं, हम प्रतिदिन दूसरों को मरते हुए देख भी रहे हैं; फिर भी स्वयं की मौत को मन से स्वीकार नहीं कर पाते। अतः उधर से आँखें बन्द कर लेते हैं। ऐसी भयंकर दुःखद मृत्यु, महोत्सव कैसे बन सकती है? हमें लगता है, ये कोरी आदर्श की बातें हैं, जो कहने-सुनने में ही सैद्धान्तिक दृष्टि से अच्छी कही जाती हैं, प्रायोगिकरूप में तो मृत्यु को महोत्सव मान पाना सम्भव नहीं लगता। मौत के नगाड़ों की ध्वनि को भला विवाह के बाजों की ध्वनि में कैसे बदला जा सकता है? यह एक विचारणीय बिन्दु है, चिन्तन का विषय है। विदाई के क्षण भी बड़े विचित्र होते हैं। चाहे वे बेटी की विदाई के क्षण हों या धर्मात्माओं की चिरविदाई के; दोनों ही स्थितियों में सभी को हर्ष-विषाद एवं सुख-दुःख की मिली-जुली ऐसी विचित्र अनुभूति होती है, जिसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता। एक ओर जहाँ विदाई के बाद चिरप्रतीक्षित दुर्लभ मनोरथों के साकार होने का हर्ष होता है, वहीं दूसरी ओर अपने सम्बन्धियों से सदा-सदा के लिए बिछुड़ने का असीम दुःख भी होता है। वह स्थिति तो और भी विचित्र हो जाती है, जब चिरविदाई के समय एक ओर तो मृत्यु को महोत्सव जैसा मनाने की बात कही जाती है और दूसरी ओर अनन्तकाल के लिए अपने इष्टजनों के वियोग की असह्य मानसिक वेदना का पहाड़ सामने खड़ा दिखाई देता है। यद्यपि इन परिस्थितियों में मरणासन्न साधकों के मन में अन्तर्द्वन्द्व भी होता है, पर वे उस अन्तर्द्वन्द्व को जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में किए गए तत्त्वाभ्यास के सहारे उपशान्त कर लेते हैं, उस द्वन्द्व पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। उस विजय के हर्ष में ही उनकी वह मृत्यु महोत्सव बन जाती है। .. मृत्यु तो सभी की एक न एक दिन होने वाली ही है। इस ध्रुवसत्य से तो कोई प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 83
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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