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________________ सल्लेखना-विधि पं. नाथूलाल शास्त्री उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था, रोग -इनकी प्रतीकार रहित स्थिति में रत्नत्रय धर्म की रक्षा हेतु विधिपूर्वक शरीर-त्याग सल्लेखना कहलाती है। सल्लेखना का शब्दार्थ भली प्रकार शरीर और कषाय को कृश करना यानी क्रमशः घटाना है। जैसे मकान में अग्नि लगने पर गृहस्थ उसे बुझाने का प्रयत्न करता है; प्रयत्न करने पर भी जब अग्नि नहीं बुझती तो वह गृह में से अपने आवश्यक सामान को निकाल लेता है। उसी प्रकार उक्त उपसर्ग आदि के आने पर साधक श्रावक अपने रत्नत्रय धन की रक्षा करते हुए शरीर से मोह छोड़ देता है। सल्लेखना श्रावक और मुनिराज दोनों की होती है। पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक -इन तीन श्रावक के भेदों में साधक सल्लेखना करता है। श्रावक जिनलिंग धारण की योग्यता नहीं रखता तो वह भी सल्लेखना का अधिकारी माना जाता है और जिनलिंग धारण के योग्य हो तो उसे जिनलिंग धारण करना चाहिए। जिस श्रावक में जिनदीक्षा धारण की योग्यता नहीं हो तो उसे जिनदीक्षा नहीं दी जा सकती। शरीर स्वस्थ होने पर श्रावक रत्नत्रय का साधक होता है इसलिए शरीर को नीरोग रखने के लिए नियमित आहार और विहार करते रहें। रोग आने पर योग्य औषधोपचार करें। यदि प्रयत्न करने पर भी रोग दूर न हो तो शरीर के लिए अपने रत्नत्रय धर्म को नहीं छोड़े। ___ गृहीत व्रत के विनाश का कारण उपस्थित होने पर शरीर की उपेक्षा करने वालों को आत्मघात का प्रसंग नहीं होता, क्योंकि आत्मघात कषायवश विष आदि से प्राणनाश करने वाले व्यक्ति के ही कहलाता है। भयंकर रोग से मरणासन्न स्थिति में गुरु के समीप ही रहे, जो उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। - सल्लेखना विधि में एक साथ आहार का त्याग न कर निश्चित क्रम का ध्यान रखकर ही आहार त्याग किया जाता है। बाह्य क्रिया—काय कृश करने के साथ ही अन्तरंग कषाय कृश करना चाहिए। कृत-कारित-अनुमोदना और मन-वचन-काय से गुरु के समक्ष निश्छल होकर क्षमापूर्वक आलोचना कर श्रावक के सम्पूर्ण व्रत निर्दोष प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 4077
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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