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________________ में वज्रनाभि चक्रवर्ती होते हैं और जिनेश्वरी दीक्षा धारण करते हैं। कमठ का जीव छठे नरक की यात्रा करता हुआ कुरंग भील के रूप में जन्म लेता है और वजनाभि मुनिरांज की हत्या कर देता है। मुनिराज आत्मध्यान, समताभाव एवं समाधिमरणपूर्वक देह त्याग कर मध्यम ग्रैवेयक में सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्र होते हैं। वहाँ से वह जीव अयोध्या में आनंद कुमार राजकुमार के रूप में आत्मशुद्धि हेतु जिनेश्वरी दीक्षा धारण करता है। कुरंग भील का जीव भी सातवें नरक की यात्रा करता हुआ सिंह योनि धारण करता है और पूर्व वैर के कारण आनंद कुमार साधु के टुकड़े-टुकड़े कर देता है। आत्मध्यान एवं समताभावपूर्वक देह त्याग कर आनंद कुमार का जीव चौदहवें स्वर्ग का अहमिन्द्र होता है। वहाँ के सुख भोगकर वह राजकुमार पार्श्व के रूप में अन्तिम जन्म धारण करता है। सिंह जीव तीव्र आर्त्त-रौद्र भावों से 17 सागर पर्यंत नारकीय एवं तीन सागर पर्यंत तिर्यंच गति के दुःख भोगकर किंचित् शुभ भावों के कारण महिपाल नामक राजा हुआ, जो राजकुमार पार्श्व का रिश्ते में नाना बना। पंचाग्नि तप के फलस्वरूप महिपाल संवर देव बनता है और मुनिराज पार्श्व पर भयंकर उपसर्ग कर अपने तीव्र वैर और क्रूर परिणामों को अभिव्यक्त करता है। तीर्थंकर पार्श्व अपने ज्ञायक स्वभाव में निमग्न हो समस्त कर्मबन्ध की बेड़ियाँ काटकर अरिहन्त परमात्मा बनते हैं और समवसरण आदि विभूतियों से सुशोभित होते हैं। संवर देव आत्मग्लानिपूर्वक . प्रायश्चित्त कर जीवन का रूपान्तरण करता है। पार्श्व और कमठ के जीव के उक्त पूर्व भवों का आगमिक रूप से मरण का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि कमठ के जीव का मरण बाल बालमरणरूप है, जो अज्ञान अंवस्था में होता है। वज्रघोष हाथी का जीव देशव्रत धारी था। उसका मरण बालपण्डित मरण रूप था, जो पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती का होता है। मुनिराज के रूप में अनेक बार मरण हुआ वह पण्डित मरण था, जो छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज को होता है। तीर्थंकर के रूप में देहत्याग पण्डित-पण्डित मरण कहा जाता है जो केवली भगवान के देहत्यागपूर्वक होता है। इनके अलावा एक बालमरण भी होता है जो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक या सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्र को होता है। पण्डित मरण जो मुनिराजों का होता है, उसके तीन भेद हैं- भक्त-प्रत्याख्यान मरण, इंगिनी मरण और प्रायोपगमन मरण। इनका सविस्तार वर्णन जैनागम में उपलब्ध है। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आत्मशुद्धीकरण रूप मोक्षप्राप्ति की प्रक्रिया में अनेक भव लगते हैं और समाधिमरण रूप सल्लेखना व्रत उत्तम गति/ आयु पाने में सहकारी होता है, अतः सभी भव्य जीवों को समाधिमरणपूर्वक देह प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 75
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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