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________________ तप) से देवगति का बन्ध होता है। मन, वचन, काय की कुटिलता और विसंवाद से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है तथा योग की सरलता और अविसंवाद से शुभ नाम कर्म का बन्ध होता है। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति नाम कर्म का बन्ध होता है। इसप्रकार भाव, भावना, लेश्या एवं योग से आयु एवं नाम कर्म के बन्ध का स्वरूप होता है। ____ आयु कर्म का बन्ध भुज्यमान आयु के आठ त्रिभाग (अपकर्ष काल) में होता है अर्थात् आयु के दो हिस्से बीत जाने पर तीसरे भाग के पहले समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक पहला त्रिभाग होगा, इसमें आयु का बन्ध हो सकता है। यदि नहीं हुआ तो शेष आयु के दो हिस्से बीत जाने पर तीसरे भाग के पहले समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक दूसरा त्रिभाग होगा, जिसमें आयु का बन्ध होगा। ऐसे आठ विभाग में आयुबन्ध होने का विधान है। यदि इनमें नहीं हुआ तब आयु के अन्तिम अन्तमुहूर्त में अवश्य ही आयु का बन्ध होगा। यह व्यवस्था कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों के सम्बन्ध में है। देव और नारकियों के परभवसम्बन्धी आयु का बन्ध.आयु के अन्तिम छह महीने शेष रहने पर पूर्व की भाँति आठ त्रिभाग आदि में होता है। यदि पहले त्रिभाग में आयु का बन्ध हो गया तो उसके आगे के विभागों में भी आयु का बन्ध होता रहेगा। उक्त विवेचन से यह फलितार्थ निकलता है कि कोई यह नहीं कह सकता कि आयु का बन्ध कब होगा, अतः इसके लिए प्रत्येक समय जागरूक रहना चाहिए। यदि प्रथम दो त्रिभाग में आयु का बन्ध नहीं हुआ तो जीवन के अन्तिम वर्षों में आयु बन्ध कभी भी हो सकता है। उदाहरणस्वरूप यदि किसी की भुज्यमान आयु 63 वर्ष की है तब उसकी आयु के दो त्रिभाग 42+14=56 वर्ष होंगे, शेष छह त्रिभाग शेष 7 वर्षों में आयेंगे। यह काल बारह वर्षीय भक्त प्रत्याख्यान (नियम-सल्लेखना) में सहज ही समाहित हो जाता है। इस दृष्टि से शुभ-आयु बन्ध हेतु आत्मकेन्द्रित दृष्टि, शुभलेश्या रूप भद्रपरिणाम एवं कषायकृशता की जागरूकता अपेक्षित है। इसी को मति अनुसार गति कहते हैं। संसार के दुःखों में सबसे अधिक दुःख मरण का होता है। मरण अर्थात् विद्यमान पर्याय का अन्त / यह दुःख ऐसा होता है जो शब्दों में व्यक्त नहीं हो पाता। इस दुःख से उद्धार पाने की परम ओषधि समाधिमरण है। मुनि जीवन रूप देवालय का भव्य कलश समाधिमरण है, जिसमें समत्वभावपूर्वक कष्ट रहित शरीरत्याग द्वारा उत्तम गति प्राप्त होती है। मति अनुसार गति का बन्ध होता है और जिस गति का बन्ध होता है, अन्तिम मति भी वैसी हो जाती है। अतः उत्तम गति हेतु सल्लेखना की भावना और सल्लेखना धारण करना मनुष्य जीवन की प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 1073
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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