SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसी बात को सन्त कबीर ने भी एक दोहे में व्यक्त किया है। वे भी मरने से पहले संसार की ओर से मृतवत निरपेक्ष होने की सार्थकता सिद्ध करते हैं "जीवन से मरना भला, जो मर जाने कोय। मरने पहले जो मरै, अज्जर-अम्मर होय।।" इस दोहे में उन्होंने कहा है- जीने से मरना अच्छा है, मरना उसी का सार्थक है जो मरने का ढंग जानता हो, मरने से पहले ही, स्व के प्रति जागरूकता और संसार के प्रति उदासीनता करके ही मरना चाहिए। मरने से पहले मरने वाला अजर-अमर हो जाता है। __ इन दोनों सन्तों की बातों को मिलाकर समझना होगा। कबीर ने कहा- मरने से पहले ही मर जाना ठीक है, यदि मरने का ढंग मालूम हो। उन्होंने ऐसे मरण का फल भी बता दिया कि- इसप्रकार एक बार मरने से हमेशा के लिए मृत्यु ही समाप्त हो जाती है, पर उन्होंने इस दोहे में मरने का सही ढंग नहीं बताया। सन्त दादू ने वह ढंग बता दिया- जो भाव मरण कर रहा है, वही मर रहा है। प्रतिक्षण मर रहा है। जिसने उस मरण को जीत लिया वह कभी नहीं मरता। वह तो अजरअमर हो जाता है। अगर मरने का ढंग आ गया तो फिर जीने की अपेक्षा मरना अधिक सार्थकता दे सकता है। मरने के पहले स्व के प्रति जागरूकता और संसार के प्रति मृतवत् उदासीनता या उपेक्षा भाव जिसके चित्त में समा जाये, यानी जो अपने प्रति जीवित हो और संसार के राग-द्वेष, क्रोध, घृणा आदि विकारों की ओर से अपने आपको मृतवत् उदासीन या तटस्थ बना ले, वह साधक जन्म-मरण के अनादि चक्र से मुक्त होकर अजर-अमर हो जायेगा। इसप्रकार का मरण सध जाये तो उसके बाद सदा के लिए मृत्यु ही स्वयमेव मर जाती है। वास्तव में जो भाव-मरण कर रहा है वही प्रतिक्षण, या प्रतिदिन मर रहा है। जिसने उस मरण को जीत लिया वह कभी नहीं मरता। मृत्यु आकर भी उसकी देह-परिवर्तन के अलावा कुछ बिगाड़ नहीं कर पाती। इसप्रकार आचार्यों ने देह और आत्मा की भिन्नता के आधार पर सल्लेखना के साधक को 'आत्म-स्वातन्त्रय' का अमोघ मन्त्र प्रदान किया है। उसे बार-बार बताया है कि जन्म और मरण दोनों हम सबके साथ घटने वाली सहज घटनाएँ हैं। ये दोनों अभिन्न हैं और एक-दूसरे के लिए अनिवार्य भी हैं। जन्म के बिना मरण की और मरण के बिना जन्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हर जीवन के दोनों छोर मरण से जुड़े होते हैं। जन्म उल्लास से परिपूर्ण है, मरण विलक्षण शान्ति का क्षण है। केवल दोनों के बीच का समय, जिसे हम जीवन कहते हैं, वही कुछ उलझनों से भरा है। 68 00 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy