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________________ मृत्यु महोत्सव भारी Ey नीरज जैन संसार की प्रायः सभी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में जीवन को सँवारने की, या ठाठ-बाट से जीने की विधियों का बार-बार वर्णन किया गया है। जीवन को कला कहा गया है, पर मृत्यु की हर जगह उपेक्षा की गई है। मृत्यु की चर्चा करने में भी हमें मौत का भय लगता है। कलाओं की लम्बी तालिका में देहोत्सर्ग की कला का कहीं नाम भी नहीं आता। इसप्रकार मृत्यु, जो जीवन की अनिवार्य परिणति है, हमारे द्वारा जीवन भर इतनी उपेक्षित रहती है कि हम उसकी चर्चा से भी बचते रहे। हमने उसके बारे में कभी कुछ भी जानने का प्रयास नहीं किया। . जैनाचार्यों ने जीवन की तरह मृत्यु पर भी गहन चिन्तन किया है। उन्होंने सिद्ध किया कि जिस प्रकार जीवन को अनुशासित करके आत्म-कल्याण की प्राप्ति की जा सकती है, उसी प्रकार मृत्यु को संस्कारित करके भी उससे इस जन्म का उत्तम समापन किया जा सकता है और अगले जन्म के लिए सुखकर भूमिका बनाई जा सकती है। यानी जीवन तो अति महत्त्वपूर्ण है ही, किन्तु साधक के लिए मृत्यु भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मरण के मुख्यतः तीन भेद किये जा सकते हैं- 1. नित्यमरण 2. भावमरण 3. भवमरण। 1. नित्य मरण - जन्म के क्षण से ही हम प्रति निमिष मरण की ओर सरकते जा रहे हैं, हर साँस हमें मृत्यु की ओर धकेल रही है, यह नित्य मरण है। किसी के भी द्वारा, किसी भी उपाय से किसी प्राणी के इस नित्य मरण को रोका नहीं जा सकता। 2. भाव मरण - हमारी चेतना में क्रोध-मान-छल-कपट-लोभ-तृष्णा और वासना आदि की जो तरंगें निरन्तर उठती हैं, और उनसे हमारे भीतर जो विक्षोभ उत्पन्न होता है, वह हमारा भाव-मरण है। यह भी अनवरत चल रहा है, किन्तु अपनी चित्त-वृत्तियों को नियंत्रित करके कुछ अंशों में इससे बचा जा सकता है या इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है। योगीजन अथवा अनुशासित और नियमित जीवन जीने वाले लोग अपनी साधना से ऐसा कर दिखाते हैं। प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 63
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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