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________________ (1) भक्तप्रत्याख्यान- भक्तप्रत्याख्यान नामक सल्लेखना के साधक को स्व और परकृत दोनों के उपकार की अपेक्षा रहती है। साधक की वैयावृत्ति करने वाला यदि नहीं होगा तो वह ठीक से सल्लेखना की साधना नहीं कर सकता है। अतः इसे एक निर्यापकाचार्य, की आवश्यकता पड़ती है। इस पंचम काल में यह भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना ही सम्भव है, क्योंकि अन्य दो सल्लेखनाएँ वजवृषभनाराच आदि श्रेष्ठ तीन संहनन (शरीर की संरचना) वालों को ही प्राप्त होती हैं। इस काल में ये तीनों संहनन नहीं होने से भक्तप्रत्याख्यान ही सम्भव है। इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल 12 वर्ष का है। शेष मध्यम काल है। भक्तप्रत्याख्यान प्रथमतः दो प्रकार का है- सविचार मरण (जब दीर्घकाल बाद मरण हो तो इसका साधक बलयुक्त होता है) और अविचार मरण (सहसा उपस्थित होने पर इसका साधक बलहीन होता है)। अविचार के तीन भेद हैं- निरुद्ध (जानने वालों की अपेक्षा इसके दो भेद हैं- प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप), निरुद्धतर और परमनिरुद्ध / / (2) इंगिनीमरण- इसमें साधक को पर के उपकार (सहायता) की अपेक्षा नहीं रहती। मूत्रादि का निराकरण स्वयं करते हैं। मात्र स्व सापेक्ष यह सल्लेखना होती है। इंगिनीमरण शब्द का अर्थ है- स्व-अभिप्रायानुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए मरण। यह रूढ़ शब्दार्थ है। - (3) प्रायोपगमन- इसमें स्व और पर दोनों की अपेक्षा नहीं होती। मूत्रादि का निराकरण न तो साधक स्वयं करता है और न दूसरे से कराता है। यह शुश्रूषा न तो स्वयं करता है और न दूसरों से कराता है। प्रायोपगमन को ही पादोपगमन या प्रायोग्यगमन शब्द से भी कहा गया है। भव का अन्त करने योग्य संहनन व संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं। पांवों से चलकर मरण करना पादोपगमन है। यह अन्य मरणों में भी सम्भव होने से यहाँ यह अर्थ रूढ़िवश है।' प्रश्न : यदि मृत्यु का संशय होने पर कोई साधक भक्तप्रत्याख्यान नामक समाधि मरण ले ले और बाद में मृत्यु टल जाए तो उसे क्या करना चाहिए? उत्तर : उपसर्ग आदि के आने पर, मृत्यु का सन्देह होने पर यदि भक्तप्रत्याख्यान कर लिया है और उस उपसर्ग के टल जाने से मृत्यु का सन्देह दूर हो जाए तो पारणा (अन्न ग्रहण) कर लेना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति में पारणा नहीं की तो आत्मघात हो सकता है। अतः ऐसी परिस्थिति में जहाँ मृत्यु का संशय हो, ऐसा संकल्प करना चाहिए कि यदि बच गया तो पारणा करूँगा अन्यथा त्याग रहेगा। कहा है“एदम्हि देसयाले उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्झं।। एदं पच्चक्खाणं णित्थिपणे पारणा होज्जं।।"24 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 1043
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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