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________________ प्राप्त होने वालों की गणना अधम बालमरण में की जाती है। (2) पण्डितमरण वाले- संसार के विषयों से अनासक्त रहने वाले प्राणी की मृत्यु पण्डितमरण कहलाती है। विषय-भोगों की अनासक्ति के तरतम भाव की दृष्टि से इसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- उत्तम, मध्यम और अधम / सल्लेखनापूर्वक मरण को ही पण्डितमरण कहते हैं। सल्लेखना धारण करनेवाले आराधक (साधक) की तीनों शुभ लेश्यायें संभव हैं; अशुभलेश्या वाला आराधक दिखावटी सल्लेखना धारण करता है। अतः कहा है- शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश से परिणत होकर मरनेवाला साधक उत्कृष्ट आराधक है। शुक्ल. लेश्या के मध्यम अंश व जघन्य अंश तथा पद्मलेश्या के समस्त अंशों से परिणत होकर मरनेवाला साधक मध्यम आराधक है। पीतलेश्या के समस्त अंशों से परिणमित होकर मरनेवाला साधक जघन्य आराधक है। जो उत्कृष्ट आराधक है वह उसी भव में मुक्त हो जाता है। जो मध्यम आराधक है वह तृतीय भव में मुक्त होता है। जो जघन्य आराधक है वह सातवें भव में मुक्त हो जाता है। समाधि मरण वाला जीव अधिक से अधिक इक्कीस भवों के भीतर मनुष्य व देवलोक के सुखों को भोगकर मुक्त हो ही जाता है। यह सल्लेखनापूर्वक मरण या समाधिमरण या पण्डितमरण बाह्य (शरीराधीन और आभ्यन्तर कषायाधीन) के भेद से दो प्रकार का हैं “सल्लेहणा य दुविहा अब्भतरिया य बाहिरा चेव। अब्मंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे / / " इन्हें ही क्रमशः द्रव्य सल्लेखना (बाह्य सल्लेखना) और भाव सल्लेखना (आभ्यन्तर सल्लेखना) कहते हैं।' प्रश्न : बाह्य और आभ्यन्तर सल्लेखना में कौन प्रधान है? उत्तर : परिणामों की विशुद्धि (कषाय-सल्लेखना) यदि न हो तो साधक शरीरकृश करनेवाला कितना ही बड़ा तप क्यों न करे, उसे संसार-परिभ्रमण से मुक्ति नहीं मिलती। अतः आभ्यन्तर सल्लेखना ही प्रधान है, बाह्य नहीं। बाह्य यदि आभ्यन्तर की साधक है तो कार्यकारी है, अन्यथा निरर्थकं है, क्योंकि कषायों से कलुषित मन में परिणामों की विशुद्धि नहीं होती। प्रश्न : क्या बलात् (जबरदस्ती) किसी को सल्लेखना दिलाई जा सकती है? उत्तर : नहीं, सल्लेखना प्रीतिपूर्वक ली जाती है अन्यथा वह बाह्यक्रिया मात्र होगी।' प्रश्न : वृद्धावस्था, असाध्य रोग आदि कारणों के न होने पर क्या सल्लेखना ली जा सकती है? उत्तर : नहीं। ऐसा करने पर आत्मघात हो सकता है। . 4000 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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