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________________ वैसी गति। इसलिए यदि तपस्वी भी अन्तिम काल में संन्यासमरण नहीं करता तो उसका तप निष्फल कहा जाता है। चाहे गृहस्थ हो या साधु, त्यागी हो या ब्रह्मचारी, धर्म की रक्षा के लिए देह का विसर्जन करना तो सल्लेखना है। आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में- असाध्य रोग, भयंकर दुर्भिक्ष तथा उग्र उपसर्ग एवं प्राकृतिक आपदाओं के आने पर जिनका निवारण सम्भव न हो तो धर्म की रक्षा के लिए शरीर का त्याग करना सल्लेखना कहा गया है। __ स्थिरता के साथ आत्मा के स्वभाव में रहना धर्म है। जिनको रोकना सामर्थ्य के बाहर है, जो क्षण-क्षण में चित्त को चंचल करते हैं, ऐसे मोह के सागर में डूबा देने वाले राग-द्वेषादि विकारी भावों से अन्तरंग में महान् क्षोभ उत्पन्न होता है तथा धर्म का अभाव होता है। अतः धर्म की स्थिति बनाये रखने के लिए प्रसन्नतापूर्वक देहादि से ममत्व बुद्धि छोड़कर समाहित होना ही समाधिमरण का प्रथम सोपान है। आचार्य अमितगति (द्वितीय) का कथन है- . _ “समाहितं मनो यस्य, वश्यं त्यक्ताशुभास्रवम्। .. उह्यते तेन चारित्रमश्रान्तेनापदूषणम् / / " –मरणकण्डिका, 5/139 जिसका मन अशुभ आस्रव के प्रवाह से रहित है तथा अपने वश में है, वह समाहित कहा जाता है। समाहित चित्त वाला ही निर्दोष चारित्र को धारण करता है। ... समाधिमरण का अर्थ है- ऐसे ज्ञानानन्द जीवन की उपलब्धि, जो आज तक कभी एक बार भी प्राप्त नहीं हुई। अनादिकाल से लेकर अब तक संसारी जीव ने मन तथा इन्द्रियों के माध्यम से क्लेशकारक एवं सन्तापजनित सुखाभास रूप जिस इन्द्रियसुख को अनन्त बार प्राप्त किया है वह आकुलता किंवा दुःखदायक ही सिद्ध हुआ है। अतः सुख क्या है? वह परम सुख आज तक क्यों प्राप्त नहीं हुआ? इसका विचार कर ! जन्म-जन्मान्तरों में किए गए तप से भी आज तक जन्म-मरण का अभाव क्यों नहीं हुआ? आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि अन्तक्रिया रूप जो संन्यासमरण होता है, उससे ही तप सार्थक होता है। तप करनेवाले के यदि अन्त समय में संन्यासमरण नहीं होता है तो उसका तप निष्फल कहा जाता है। पण्डितप्रवर सदासुखदास जी के शब्दों में- “जातें कोटिपूर्व पर्यन्त तप किया, अर अन्तकाल में जाका मरण बिगड़ि गया, ताका तप प्रशंसा-योग्य नाहीं। तप करने से देवलोक, मनुष्यलोक की सम्पदा पा जाय, परन्तु मरणकाल में आराधना के नष्ट होने से संसार-परिभ्रमण ही करेगा। जैसे अनेक दूर देशनि में बहुत भ्रमण कर बहुत धन उपार्जन किया, परन्तु अपने नगर के समीप आय धन लुटाय दरिद्री होय है, तैसे समस्त पर्याय में तप-व्रत-संयम धारण करिकै हू जो अन्तकाल में आराधना नष्ट करि दीनी तो अनेक जन्म-मरण करने का ही पात्र होयगा।" -रत्नकरण्डश्रावकाचार, भाषा, पृष्ठ 453 - वास्तविकता यह है कि केवल शरीर छोड़ने का नाम समाधि नहीं है, किन्तु प्राकृतविद्या + जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 35
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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