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________________ अपनी आलोचना करता हुआ साधु शरीर त्यागे, तो उसे परमनिरुद्ध भक्तप्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते हैं। सामान्य मरण की अपेक्षा समाधिमरण की श्रेष्ठता : आचार्य शिवार्य ने सत्रह प्रकार के मरणों का उल्लेख करके उनमें विशिष्ट पाँच तरह के मरणों का वर्णन करते हुए तीन मरणों को प्रशंसनीय एवं श्रेष्ठ बतलाया है। वे तीन मरण ये हैं :- 1. पण्डित-पण्डितमरण 2. पण्डितमरण 3. बाल-पण्डितमरण / उक्त मरणों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि चउदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भगवान् का निर्वाण-गमन पण्डित-पण्डितमरण है, आचारांग-शास्त्रानुसार चारित्र के धारक साधु-मुनियों का मरण पण्डितमरण है, देशव्रती श्रावक का मरण बाल-पण्डितमरण है, अविरत-सम्यग्दृष्टि का मरण बालमरण और मिथ्यादृष्टि का मरण बाल-बालमरण है। ऊपर जो भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन -इन तीन समाधिमरणों का कथन किया गया है वह सब पण्डितमरण का कथन है अर्थात् वे पण्डित-मरण के भेद हैं। समाधिमरण के कर्ता, कारयिता, अनुमोदक और दर्शकों की प्रशंसा : - आचार्य शिवार्य ने सल्लेखना करने, कराने, देखने, अनुमोदन करने, उसमें सहायक होने, आहार-औषध-स्थानादि देने तथा आदर-भक्ति प्रकट करनेवालों को पुण्यशाली बताकर उनकी बड़ी प्रशंसा करते हुए लिखा है :- वे मुनि धन्य हैं, जिन्होंने संघ के मध्य में जाकर समाधिमरण ग्रहण कर चार प्रकार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप) की आराधनारूपी पताका को फहराया है। वे ही भाग्यशाली और ज्ञानी हैं तथा उन्हीं ने समस्त लाभ पाया है जिन्होंने दुर्लभ भगवती आराधना (सल्लेखना) को प्राप्त किया है। जिस आराधना को संसार में महाप्रभावशाली व्यक्ति भी प्राप्त नहीं कर पाते, आराधना को जिन्होंने पूर्णरूप से प्राप्त किया, उनकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है? वे महानुभाव भी धन्य हैं, जो पूर्ण आदर और समस्त शक्ति के साथ क्षपक की आराधना कराते हैं। जो धर्मात्मा पुरुष क्षपक की आराधना में उपदेश, आहार-पान, औषध व स्थानादि के दान द्वारा सहायक होते हैं, वे भी समस्त आराधनाओं को निर्विघ्न पूर्ण करके सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं। वे पुरुष भी पुण्यशाली है, कृतार्थ हैं, जो पापकर्मरूपी मैल को छुड़ानेवाले क्षपकरूपी तीर्थ में सम्पूर्ण भक्ति और आदर के साथ स्नान करते हैं। अर्थात् क्षपक के दर्शन, वन्दन और पूजन में प्रवृत्त होते हैं। यदि पर्वत, नदी आदि स्थान तपोधनों से सेवित होने से तीर्थ कहे जाते हैं और उनकी सभक्ति वन्दना की जाती है तो तपोगुण की राशि क्षपक तीर्थ क्यों नहीं कहा जायेगा? अर्थात् उसकी वन्दना और दर्शन का भी वही फल प्राप्त होता है जो तीर्थ-वन्दना का होता है। यदि पूर्व ऋषियों की प्रतिमाओं की वन्दना प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 31
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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