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________________ नष्ट होने देता है। उसी तरह व्रत-शीलादि गुणों का अर्जन करनेवाला व्रती-श्रावक या साधु भी उन व्रतादिगुण-रत्नों के आधारभूत शरीर की, पोषक आहार-औषधादि द्वारा रक्षा करता है, उसका नाश उसे इष्ट नहीं है। पर दैववश शरीर में उसके विनाशकारण (असाध्य रोगादि) उपस्थित हो जायें, तो वह उनको दूर करने का यथासाध्य प्रयत्न करता है। परन्तु जब देखता है कि उनका दूर करना अशक्य है और शरीर की रक्षा अब सम्भव नहीं है, तो उन बहुमूल्य व्रत-शीलादि आत्म-गुणों की वह सल्लेखना द्वारा रक्षा करता है और शरीर को नष्ट होने देता है। इन उल्लेखों से सल्लेखना की उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता सहज में जानी जा सकती है। लगता है कि इसी कारण जैन-संस्कृति में सल्लेखना पर बड़ा बल दिया गया है। जैन लेखकों ने अकेले इसी विषय पर प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में अनेकों स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं। आचार्य शिवार्य की 'भगवती आराधना’ इस विषय का एक अत्यन्त प्राचीन और महत्त्वपूर्ण विशाल प्राकृत-ग्रन्थ है। इसी प्रकार ‘मृत्युमहोत्सव', 'समाधिमरणोत्साहदीपक', 'समाधिमरणपाठ' आदि नामों से संस्कृत तथा हिन्दी में भी इसी विषय पर अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं। सल्लेखना का काल, प्रयोजन और विधि _ आचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में सल्लेखना-धारण का काल और उसका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है कि अपरिहार्य उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग -इन अवस्थाओं में आत्मधर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है. वह सल्लेखना है। जैन व्रती-श्रावक या साधु की दृष्टि में शरीर का उतना महत्त्व नहीं है जितना आत्मा का है; क्योंकि उसने भौतिक दृष्टि को गौण और आध्यात्मिक दृष्टि को उपादेय माना है। अतएव वह भौतिक शरीर की उक्त उपसर्गादि संकटावस्थाओं में, जो साधारण व्यक्ति को विचलित कर देनेवाली होती है, आत्मधर्म से च्युत न होता हुआ उसकी रक्षा के लिए साम्यभाव पूर्वक शरीर का उत्सर्ग कर देता है। वास्तव में इसप्रकार का विवेक, बुद्धि और निर्मोह भाव उसे अनेक वर्षों के चिरन्तन अभ्यास और साधना द्वारा ही प्राप्त होता है। इसी से सल्लेखना एक असामान्य असिधाराव्रत है जिसे उच्च मनःस्थिति के व्यक्ति ही धारण कर पाते हैं। सच बात यह है कि शरीर और आत्मा के मध्य का अन्तर (शरीर जड़, हेय और अस्थायी है तथा आत्मा चेतन, उपादेय और स्थायी है) जान लेने पर सल्लेखना-धारण कठिन नहीं रहता। उस अन्तर का ज्ञाता यह स्पष्ट जानता है- शरीर का नाश अवश्य होगा, उसके लिए अविनश्वर फलदायी धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, क्योंकि शरीर का नाश हो जाने पर तो दूसरा शरीर पुनः मिल सकता है। परन्तु आत्मधर्म का नाश होने पर उसका ... पुनः मिलना दुर्लभ है।" अतः जो शरीर-मोही नहीं होते वे आत्मा और अनात्मा के प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 25
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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