SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने समीप रखता है। अपनी आयु की पूर्णता जानकर सर्व परिग्रह पुत्रों को सौंपता है और आप जीवन पर्यन्त के लिए सर्व परिग्रह का और चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देता है और यदि आयु पूर्ण होने में सन्देह दिखाई देता है तो परिग्रह एवं आहार आदि का दो-चार घड़ी को नियम रूप से त्याग करता हुआ निःशल्य होने की चेष्टा करता है। पलंग से नीचे उतरकर सिंह के सदृश उसी प्रकार निर्भय तिष्ठता है, जैसे बैरियों को जीतने के लिए सुभट उद्यमी होकर रणभूमि में स्थित होता है। किसी प्रकार की अंश मात्र भी आकुलता उत्पन्न न करता हुआ शुद्धोपयोग का अभिलाषी सम्यग्दृष्टि जीव मोक्षलक्ष्मी के पाणिग्रहण की वांछा करता हुआ उसमें ऐसा अनुरागी होता है मानो शीघ्र ही उसे वरण करना चाहता है। उसके हृदय में मोक्ष लक्ष्मी का आकार टाँकी से उत्कीर्ण किये हुए के सदृश स्थित रहता है। वह उसे शीघ्र ही वरण करना चाहता है, इसीलिए अपनी परिणति में राग-भाव का स्थान नहीं देता। उसे इस बात का भय है कि कदाचित् मेरे स्वभाव में रागांश आकर दोष उत्पन्न कर देंगे तो जो मोक्षलक्ष्मी मुझे वरण करने के सन्मुख हुई है वह पीछे मुड़ जायगी, इसलिए मैं इस राग-परिणति को दूर ही से छोड़ता हूँ। ऐसे विचार करता हुआ वह सम्यग्दृष्टि जीव अपना काल पूर्ण करता है। उसके परिणामों में निरन्तर निराकुल आनन्द रस प्राप्त करने की, शान्त रस से तृप्त होने की और आत्मिक सुख की वांछा रहती है। एक अतीन्द्रिय सुख की ही वांछा उसे रहती है अन्य किसी वस्तु की वांछा नहीं रहती। यद्यपि उसके पास अभी धर्मात्मा जनों का संयोग है, तथापि वह उस संयोग को भी पराधीन और आकुलता रूप ही समझता है। निश्चय नय से वह विचार करता है कि ये सब संयोग सुख के कारण नहीं है, सुख का कारण तो मेरा एक आत्म तत्त्व है सो मेरा मेरे पास है, इसलिए स्वाधीन है। इसप्रकार शान्त परिणामों से युक्त होता हुआ वह अपना समाधिमरण करता है जिसके फल से स्वर्ग में इन्द्रादिक की विभूति प्राप्त करता है। वहाँ से चय कर राजा होकर दीर्घकाल तक राजविभूति को भोगकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर तपश्चरण करता है। पश्चात् क्षपक श्रेणी पर चढ़कर चार घातिया कर्मों को नाश करके केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करता है। समस्त लोकालोक के तीन काल सम्बन्धी चराचर पदार्थ एक समय में स्वयमेव झलकते हैं, उस सुख की महिमा वचन-अगोचर है। “जन्म जनम मुनि यतन कराहीं। अन्तकाल मुख आवत नाहीं।।” जन्म जन्मान्तरों से मुनिगण प्रयत्न करते हैं, फिर भी अन्त समय में भगवान का नाम मुख से नहीं निकलता है। –रामचरितमानस, किष्किन्धा काण्ड, 9/2 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 201
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy