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________________ सहारे और भी बहुत से रत्न इकट्ठे कर सकूँगा। यदि वह पुरुष अग्नि को शान्त करने में सफ़ल होता है तो रत्नों के साथ-साथ झोंपड़ी की रक्षा कर लेता है और यदि उसे यह दिखाई देता है कि रत्नों को नष्ट करके झोंपड़ी की रक्षा होगी तो वह कदाचित् भी झोंपड़ी की रक्षा में उद्यम नहीं करता। झोंपड़ी को तो जलने देता है और आप अपने सर्व रत्न लेकर अपने देश चला जाता है। वहाँ जाकर एक-दो रत्न बेचकर अनेक प्रकार की विभूति को भोगता है, और अनेक प्रकार के रजत एवं स्वर्णमय महल और हवेलियाँ बनवाकर तथा बाग-बगीचों का निर्माण करवाकर राग-रंग पूर्वक उनमें आनन्द से क्रीड़ा करता है, तथा निर्भय होता हुआ सुख से रहता है। इसी प्रकार भेदविज्ञानी पुरुष शरीर के लिए अपने संयमादि गुणों में अतिचार भी नहीं लगाता और ऐसा विचार करता है कि जो संयमादि गुण रहेंगे तो मैं नवीन देव पर्याय धारण कर वहाँ से विदेह (संयमादि गुणों को सुरक्षित रखने वाला स्वर्ग जाकर ही विदेह जा सकता है, क्योंकि संयमी विदेह नहीं जाता और मनुष्यायु का बन्ध करनेवाला संयम ग्रहण नहीं कर पाता) आदि क्षेत्रों में जन्म लेकर सीमन्धर आदि तीर्थंकरों का, अनेक केवली भगवन्तों का और अनेक मुनिराजों का दर्शन करके जन्म-जन्म के संचित पापों का नाश करूँगा। अनेक प्रकार का संयम ग्रहण कर तपश्चरण करूँगा। तीर्थंकर और केवली भगवन्तों के चरणारविन्दों में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करूँगा। अनेक प्रकार के प्रश्नोत्तरों द्वारा तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझकर संसार के कारणभूत राग-द्वेष का जड़ मूल से नाश करूँगा, और श्री परमदयाल आनन्दमय अरिहन्त देव के दर्शनरूपी अमृत को पी-पीकर उनके आदेशानुसार आचरण करूँगा। उस आचरण से मेरा कर्म-कलंक धुल जायगा और मैं पवित्र हो जाऊँगा। श्री तीर्थंकर देव के निकट दीक्षा ग्रहण कर नाना प्रकार के दुर्द्धर तपश्चरण करूँगा, जिसकी अतिशयता से अत्यन्त निर्मल शुद्धोपयोग की प्राप्ति होगी, जिससे अपने आत्मस्वरूप में अत्यन्त स्थिर होकर क्षपक श्रेणी चढ़ने के सन्मुख होऊँगा, पश्चात् क्रीड़ा (क्षण) मात्र में कर्मरूपी शत्रुओं को जड़-मूल से नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करूँगा, तब एक ही समय में समस्त लोकालोक के त्रिकालं सम्बन्धी चराचर पदार्थ मुझे भी दिखाई देने लगेंगे और यह अनुपम स्वभाव फिर अनन्तकाल पर्यन्त शाश्वत रहेगा। इसप्रकार जब मैं ऐसी अपूर्व लक्ष्मी का स्वामी हूँ, तब मुझे इस शरीर से कैसे ममत्व उत्पन्न होगा? सम्यग्ज्ञानी पुरुष ऐसी ही भावना में अवस्थित रहता है। वह पुनः सोचता है कि मुझे तो दोनों ओर से आनन्द ही आनन्द है, यदि यह शरीर रहेगा तो भी शुद्धोपयोग की ही आराधना करूँगां और यदि नाश हो जायेगा तो परलोक में जाकर भी शुद्धोपयोग की आराधना करूँगा। इस प्रकार मुझे तो शुद्धोपयोग की आराधना में कोई विघ्न प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 195
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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