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________________ आराधना की साधना की तो जीव तीसरे भव में कर्मरज से रहित होकर मुक्ति प्राप्त करता है और यदि जघन्य आराधना की साधना हुई तो वह जीव सातवें भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। लोक में जितने भी सारभूत पद हैं, सुख व अभ्युदय के स्थान हैं अर्थात् देवेन्द्र का वैभव, चक्रवर्ती की सम्पदा, स्वर्गीय ऋद्धियाँ, सर्वार्थसिद्धि के सुख और लोकान्तिक देवों का ब्रह्मर्षि पद, ये सब स्थान चार आराधनाओं से प्राप्त होते हैं। संस्तरगत सर्वक्षपकों की आराधना एक सदृश नहीं होती, क्योंकि अन्त समय में क्षपक का जैसा परिणाम रहता है वैसी ही आराधना कहलाती है। जो मुनि या श्रावक समाधिमरण की इस साधना में मन-वचन-काय से सहयोग देते हैं, समाधि के समय उपस्थित होकर आचार्य का उपदेश सुनते हैं, आराधना के समय क्षपक की सेवा करते हैं, उसकी भक्ति एवं वन्दना करते हैं, वे सभी जीव नियम से चार आराधनाओं को प्राप्त कर अपना जन्म सफल करते हैं। क्षपक जहाँ आराधनाओं की साधना करता है वह वसतिका स्थान कहलाता है, जहाँ उसके शरीर की अन्तिम क्रिया होती है वह निषीधिका स्थान कहलाता है, ये दोनों स्थान तीर्थ बन जाते हैं। इन स्थानों की वन्दना से भी आत्मा पवित्र होती है। क्षपक के शव का अन्तिम संस्कार हो चुकने के बाद चार आराधनाओं की वांछा से समस्त संघ को एक कायोत्सर्ग करना चाहिए। सामान्य मुनि की समाधि होने पर उनके शरीर के दाहसंस्कार के समय सिद्ध, योग, शान्ति और समाधि भक्ति करनी चाहिए। आचार्य की समाधि होने पर सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग, शान्ति और समाधि भक्ति बोलनी चाहिए। अपने गण के मुनि का मरण होने पर उस दिन सर्व संघ को उपवास करना चाहिए और उस दिन स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा परगण के मुनि का मरण होने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, उपवास भजनीय है। जो शूरवीर और ज्ञानवान् साधक चतुर्विध संघ के समक्ष प्रतिज्ञापूर्वक चार प्रकार की आराधना रूपी पताका को ग्रहण करते हैं, वे धन्य हैं, क्योंकि अनन्त काल में भी प्राप्त न होने वाली आराधना के लाभ से त्रैलोक्य में और कोई महान् लाभ नहीं है। निर्यापकाचार्य तथा त्रियोगशुद्धिपूर्वक सर्वशक्ति लगाकर वैयावृत्य कराने वाले साधुगण भी धन्य हैं तथा वे भी धन्य हैं जो क्षपक के दर्शन करते हैं, क्योंकि इससे प्रचुर पुण्यबन्ध होता है। - जो भद्र एक पर्याय में समाधिमरणपूर्वक मरण करता है वह संसार में सात-आठ पर्याय से अधिक परिभ्रमण नहीं करता, तथा सल्लेखनाधारक क्षपक का भक्तिपूर्वक दर्शन, वन्दन और वैयावृत्य आदि करने वाला व्यक्ति भी देवगति के सुखों को भोगकर अन्त में निर्वाण प्राप्त करता है अतः सभी को मन-वचन-काय से सल्लेखना का आदर करना चाहिए। —('समाधि दीपक' से साभार) ** प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 187
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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