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________________ रूपी मगरमच्छों से व्याप्त है, क्रोध रूपी विशाल वृक्षों से युक्त है, अत्यन्त क्रूर अहंकार रूपी नक्रों के समूह से दुर्लध्य है, माया रूपी जलचर जीवों से भरा हुआ है, उभरती हुई लोभ रूपी शैवाल से मलिन है और रागद्वेष रूपी लहरों से संयुक्त है, अतः इसका किनारा प्राप्त करना कठिन है। आराधना रूपी नाव पर बैठकर क्षपक ही इसे पार करने में समर्थ होते हैं, आपको भी इन चारों आराधनाओं का भली प्रकार आराधन करना चाहिए। आपको भी रागद्वेष को भेदकर, विषयों से उत्पन्न होने वाले सुखों को छेदकर और शारीरिक कष्टों को नगण्य गिनते हुए स्वकीय आत्मा का और पंच परमेष्ठियों का ध्यान करना चाहिए। आगम में उल्लेख है कि अनेक मुनिराजों पर उपसर्ग हुए हैं, जो उस तीव्र वेदना में भी अन्य की सहायता से रहित, एकाकी थे, जिनकी वेदना का कोई उपचार नहीं था, कोई वैयावृत्त्य करने वाला नहीं था, कोई उपदेशदाता नहीं था, और कोई सान्त्वना देने वाला भी नहीं था। जो पूर्व भव के बैरियों द्वारा अग्नि में दग्ध किये गये शस्त्रों से विदारे गये, जल में डुबोये गये, पर्वतों से गिराये गये, बाणों से छेदे गये, आहार आदि से वंचित किये गये और गड्ढे आदि में डाले गये, तो भी अपने साम्य भाव से विचलित नहीं हुए उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा, वे प्राण रहित हो गये किन्तु उन्होंने आराधनाओं में शिथिलता नहीं आने दी। आप पर कोई उपसर्ग आदि का भी कष्ट नहीं है तथा और अन्य सर्व बाह्य साधन भी अनुकूल हैं, अतः आपको अपनी आराधनाओं में शिथिल नहीं होना चाहिए, कायरता छोड़नी चाहिए, अपने आपको सँभालना चाहिए तथा देव, शास्त्र, गुरु और सर्व संघ की साक्षीपूर्वक ग्रहण किये हुए इस सल्लेखना रूपी महान् व्रत् का उत्साहपूर्वक निर्वाह करना चाहिए। सल्लेखनाजन्य अतिचारों के त्याग का उपदेश ___सम्यग्दर्शनादि गुणों से सम्पन्न गुणवानों के द्वारा आचर्यमाण इस सल्लेखना की प्राप्ति तुम्हें अनादिकाल से अभी तक नहीं हुई थी। समुद्र में गिरी हई राई की प्राप्ति के सदृश महान् पुण्योदय से इस भव में इसकी प्राप्ति हुई है, अतएव अतिचार रूपी पिशाचों से इस दुष्प्राप्य समाधिमरण की रक्षा करो। ये अतिचार पाँच प्रकार के हैं___ जीविताशंसा– प्रत्यक्ष में सुखानुभव कराने वाली, आचार्य आदि के द्वारा की गई इस परिचर्यां में तथा लोकपूजादि में आसक्त होकर जीवन को स्थिर बनाये रखने की इच्छा मत करो, क्योंकि ये सब वस्तुएँ भ्रान्ति से रम्य प्रतिभासित होती हैं। यथार्थ में विचार करने पर कदली तरु के सदृश असार हैं। जीवन की इच्छा करने से इस लोक में हास्य का पात्र बनना पड़ता है, और परलोक भी बिगड़ता है, इसलिए प्रयत्नपूर्वक अपनी आत्मा को इस अतिचार से बचाओ। प्राकृतविद्या+जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 185
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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