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________________ अनुभव करते हुए भय रहित चारों आराधनाओं का शरण ग्रहण करो क्योंकि त्रैलोक्य में जीव का हित करने वाला अन्य कोई नहीं है। संसारपरिभ्रमण से छुड़ाने का सामर्थ्य समाधिमरण में ही है। ___ यदि तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाय तो वेदना का शतांश दुःख भी आपके शरीर में नहीं है, और पूर्वोपार्जित पापोदय से यदि कुछ वेदना है भी तो आपको उसमें अपने उपयोग की संलग्नता नहीं करनी चाहिए। आपको तो निरन्तर अपनी आत्मा के विषय में यह चिन्तन करना चाहिए कि मैं सिद्ध हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ, महान् हूँ, अरूपी हूँ, अतीन्द्रिय हूँ, सर्वविद् हूँ, सर्वदर्शी हूँ, परमात्मा हूँ, प्रसिद्ध हूँ और स्वसंवेदनगम्य हूँ। द्रव्यदृष्टि से जब मेरा स्वभाव इस प्रकार का है तब मुझे कर्मजन्य वेदना आदि के द्वारा क्या दुःख दिया जा सकता है? मेरे शुद्ध स्वभावी गढ़ के भीतर किसी भी प्रकार की आकुलता आदि का प्रवेश नहीं हो सकता। इसी आत्मचिन्तन की शक्ति से अपने संयमादि गुणों की रक्षा करो। असाताकर्मोदय से उत्पन्न होने वाले क्षुद्र रोगों से अपने चित्त को आकुलित मत करो। प्रायः देखा जाता है कि कष्ट एवं रोगादि के आक्रमण से पीड़ित व्यक्ति अपनी श्रद्धा से च्युत हो जाते हैं। रागादिक विकारों से रहित, त्रैकालिक शुद्ध, प्रचण्ड तेज के धारक अपने ज्ञायक स्वभाव की अटल श्रद्धा के बल पर इस जड़ शरीर के माध्यम से सल्लेखना रूपी महायज्ञ को सफल बनाकर अपनी आत्मा का उत्थान और धर्म की प्रभावना करो। ..इस मनुष्यपर्याय में समाधिमरण का संयोग साक्षात् कल्पवृक्ष है, जो भी वांछित पदार्थ लेना चाहो, इससे ले सकते हो। जो भेदविज्ञानसहित निज स्वभाव को ग्रहण करके आराधना सहित मरण करोगे तो स्वर्ग के इन्द्रादि पदों का भोग करने के पश्चात् तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती आदि होकर निर्वाण प्राप्त करोगे। त्रैलोक्य में समाधिमरण जैसा अन्य कोई दाता नहीं। ऐसे दाता को प्राप्त करके भी यदि विषयकषाय के वशीभूत रहोगे तो नरक-निगोद में पड़ोगे। शरीर में उत्पन्न होने वाली वेदना आदि के कारण यदि समाधिरूपी कल्पवृक्ष का नाश करोगे तो ज्ञानादि गुण रूपी अक्षय निधान से रहित होते हुए संसार रूपी कर्दम में डूबोगे, इसलिए अपूर्व धैर्य को जागृत करो और अपने ग्रहण किये हुए इस व्रत का निरतिचार निस्तरण करो। दुःखों की खान स्वरूप संसारावास में यही सच्चा शरण है, इसके बिना चारों गतियों में महात्रास है। यदि आप उस महात्रास से बचना चाहते हो तो विषय-कषायों का शमन कर तथा शरीर से विरक्त होकर ग्रहण किये हुए समाधिमरण से निस्तरण का पूर्ण प्रयत्न करो, जिससे आपकी दुर्गति न हो और धर्म एवं संघ का अपयश न हो। कर्मरूपी मगरमच्छों से भरे हुए संसार-समुद्र में त्रिभुवनविजयी कषायें ही भ्रमण करा रही हैं। ये कषायें अत्यन्त बलवान् और प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 183
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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