SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्व रूपी शत्रु तो असंख्यात और अनन्त भवों में बारबार दुःख देता है। यह जीव मिथ्यात्व के प्रभाव से अनन्त बार अग्नि में जलकर, जल में डूबकर, पर्वत से गिरकर, कूप आदि में पड़कर और शस्त्रघात से मरा है। अनन्त बार सिंह आदि दुष्ट पशुओं के द्वारा खाया गया है, दुष्ट मनुष्यों के द्वारा मारा गया है और बन्दीगृह आदि में सड़ा है, रोगों की तीव्र वेदना से मरा है, भूख-प्यास एवं उष्ण-शीत की वेदना से मरा है। अनन्त बार शरीर के अंगोपांग गल जाने से मरा है, दरिद्रता की पीड़ा से मरा है, सम्पूर्ण दुःखों का मूल एक मिथ्यात्व है, अतः इसका प्रयत्नपूर्वक त्याग करो। जिस प्रकार विषबाण से बांधे गए पुरुष का मरण अवश्यम्भावी है और प्रतीकाररहित है, उसी प्रकार मिथ्या शल्य से युक्त साधु का संसार-परिभ्रमण अवश्यम्भावी है। उसे उन दुःखों से बचाने में कोई समर्थ नहीं है। मिथ्यात्व के सद्भाव में धारण किया हुआ दुर्द्धरचारित्र भी जीव को संसार के दुःखों से छुड़ाने में समर्थ नहीं है। जैसे गिरी सहित कड़वी तूमड़ी में रखा हुआ दूध कटुक और गिरी रहित तूमड़ी में रखा हुआ दूध मधुर होता है; उसी प्रकार जीव के मिथ्यात्वयुक्त तप, व्रत, संयम एवं चारित्र आदि नाश को प्राप्त होते हैं और मिथ्यात्वरहित वे ही तप आदि सफल होते हैं। यह मिथ्यात्व परभव में तो दुःख देता ही है, किन्तु इसका कटुक फल तत्काल भी प्राप्त होता जाता है। यदि तुम भी मिथ्यात्व को धारण करोगे तो दुर्गति के पात्र बनोगे। अतः अपने परिणामों की सँभाल में निरन्तर प्रयत्नशील रहो। .. सम्यक्त्व के उपकारों का दिग्दर्शन तीनों लोकों और तीनों कालों में ऐसा कोई भी सुख नहीं है जो सम्यक्त्वरूपी महाबन्धु के द्वारा उपलब्ध न होता हो। सम्यग्दर्शन संसार के समस्त दुःखों का नाश करने में समर्थ है, अतः उसके धारण और रक्षण में प्रमादी मत बनो। निरन्तर ऐसा उद्यम करो जिससे सम्यक्त्व दृढ़ और उज्ज्वल बना रहे, क्योंकि ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य रूप आराधना की आधारशिला सम्यग्दर्शन ही है। जैसे नगर में प्रवेश करने का कारण द्वार है, बिना द्वार के नगर में प्रवेश नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार ज्ञानादि. आराधनाओं में प्रवेश करने का द्वार सम्यक्त्व है। जैसे मुख की शोभा नेत्रों से है, उसी प्रकार ज्ञानादि अनन्तगुणों की शोभा सम्यग्दर्शन से है। जैसे वृक्ष की स्थिति मूल (जड़) से है, वैसे ही आत्मा के गुणों की अवस्थिति सम्यग्दर्शन से है, ऐसा दृढ़ विश्वास करके, समाधिमरण स्वीकार करने वाले आपको ज्ञानादि शेष आराधनाओं की शुद्धि के लिए सप्त भयों और पच्चीस दोषों का विनाश कर सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के सामने तीनों लोकों की सम्पदा का भी कोई मूल्य नहीं है। अतः आप अविनाशी सुख की प्राप्ति हेतु सम्यक्त्व रूपी अमूल्य रत्न की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करो। प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 175
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy