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________________ उत्पन्न हो जाने पर साधु को सल्लेखना धारण करनी चाहिए। . इनके सिवा और भी अनेक कारण हैं जिनके उपस्थित होने पर आत्मार्थी को मृत्यु का सहर्ष आह्वान करते हुए सल्लेखना धारण कर लेना चाहिए। यथा- जल में बह जाने पर, एकाएक दृष्टि चले जाने पर, अटवी आदि में भटक जाने पर, मार्ग न मिलने पर तथा कर्ण आदि इन्द्रियों के निस्तेज हो जाने पर सल्लेखना धारण कर लेनी चाहिए। अचानक उपद्रव उपस्थित होने को उपसर्ग कहते हैं। तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतन कृत होने से उपसर्ग चार प्रकार के होते हैं। ऐसे प्रतीकाररहित उपसर्ग आदि के उपस्थित होने पर अपने रत्नत्रय-गुणों की रक्षा के लिए कल्याणार्थी जीवों को सल्लेखना धारण कर लेना चाहिए। सल्लेखना क्यों धारण करनी चाहिए __मृत्यु प्रायः परप्रत्यय से आती है अर्थात् मृत्यु आने के पूर्व कोई-न-कोई कारण अवश्य उपस्थित हो जाता है। इन्हीं कारणों को देखकर देह में आत्मबुद्धि रखने वाले अज्ञानी जन येन-केन प्रकारेण अर्थात् भक्ष्याभक्ष्य आदि का विचार न रखते हुए इस भौतिक शरीर के संरक्षण की व्यग्रता को प्राप्त होते हुए हाय-हाय करते हैं, किन्तु जैनधर्म के मौलिक तत्त्वों को समझने वाले तथा आध्यात्मिक दृष्टि को उपादेय समझने वाले मोक्षार्थी जीव संकटावस्थाओं में भी आत्मश्रद्धा से च्युत नहीं होते, अपितु उसकी रक्षा के लिए समतापूर्वक शरीर का उत्सर्ग कर देते हैं। . आत्मा शरीर से भिन्न है- इस भेदविज्ञान की दृढ़ता के लिए जिन्होंने चिरकाल तक व्रत, तप, संयम एवं शीलादि का दृढ़तापूर्वक पालन किया है उन्हें अपने इस चारित्ररूपी मन्दिर के ऊपर सल्लेखना रूपी कलश अवश्य चढ़ाना चाहिए। यदि वे संन्यासक्रिया में कायरता लाते हैं तो उनके जीवन भर के तपश्चरण का श्रम उसी प्रकार निष्फल हो जाता है, जिस प्रकार चिरकाल से शस्त्रों का अभ्यास करने वाले राजकुमार का श्रम युद्ध क्षेत्र में चूक जाने पर निष्फल हो जाता है। इसलिए रत्नकरण्डश्रावकाचार में समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि सर्वज्ञ भगवान् संन्यास धारण करने को तप का फल कहते हैं, इसलिए यथाशक्ति समाधिमरण के विषय में प्रयत्न करना चाहिए अर्थात् संन्यास धारण करना ही तपश्चरण आदि का फल है, अतः इस अन्तिम क्रिया का आश्रय अवश्य लेना चाहिए। लोक में व्रत, तप, संयम और चारित्र आदि के फल अनेक प्रकार से प्राप्त होते देखे जाते हैं। इनके फलस्वरूप जीवों को स्वर्ग के अनुपम भोग, बलभद्र, चक्रवर्ती, नारायण और प्रति-नारायण आदि के पद तथा आज्ञाकारी स्त्री, पुत्र आदि परिकर, इच्छित वैभव और सुन्दर-सुडौल शरीर आदि की भी प्राप्ति हो जाती है किन्तु समाधिमरण की क्रिया के अभाव में संसार का छेद शीघ्र नहीं हो पाता; जबकि 17200 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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