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________________ की अजानकारी में पंचेन्द्रिय विषय और क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर इस जड़ देह को अपना स्वरूप जाना और इस मिथ्या श्रद्धानपूर्वक दुःखमय चारों गतियों में भ्रमण करता फिरा हूँ। अब इस देह वियोग के काल में वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा की शरण में यह भावना भाने योग्य है कि मुझे इस अन्तिम घड़ी में शरीर में लगे रोगों की पीड़ा न हो एवं कषायों के परिणाम न उत्पन्न हों। ये पीड़ाओं का भोग और कषायें मुझे मरणसमय में दुःख देंगी अतः अब तो समाधिपूर्वक देह छोड़कर इस मृत्यु को महोत्सव बनाने का ही उद्यम कर्त्तव्य है। देह तो छूटना ही है, यदि इसके छूटने के काल में, आकुलतापूर्वकं मरण हुआ तो कुगति भ्रमण होगा और यदि इस देह के छूटते वक्त अपने ज्ञान, दर्शन, वैभवसम्पन्न-चैतन्य की सुध जागृत रही तो समाधिमरण होगा। जब हम ज्ञानपूर्वक देह छोड़ते हैं तब समाधिमरण कहलाता है और जब यह देह हमें छोड़ देता है तब हम आकुलता पालते हुए कुमरण या बाल-बालमरण को प्राप्त होते हैं। . .. चित्तवृत्ति को इस समय यह विचार कर्तव्य है कि यह देह तो खून, मांस, हड्डी, वसा, मल, मूत्र आदि कुधातुओं से निर्मित है जिन्हें कि देखते ही ग्लानि उत्पन्न होती है। ऊपर से तो चमड़े से लिपटी हुई है किन्तु भीतर से तो विष्टायुक्त ही है। इस अपवित्र से तो मूर्यों को ही प्रीति हो सकती है किन्तु इसके भीतर जो निर्मल आनन्द का निकेतन, नित्य लक्षण आत्मा विद्यमान है, वही मैं हूँ। लोक में भी जब नई आलीशान कोठी मिलती हो और पुरानी सड़ी-गली झोंपड़ी छूटती हो तो हर्ष ही होता है। ऐसे ही समताभावपूर्वक यह मलिन देह छूटकर उत्कृष्ट देह धारण का अवसर जीव को मिलता है तो वह आनन्ददायी ही होगा। इस अपेक्षा से तो मृत्यु का हमारे ऊपर उपकार है जो यह जीर्ण-शीर्ण शरीर छुड़ा कर हमें नई देह दिलाता है। इसकारण मृत्यु का अवसर तो हमें महोत्सव मनाने लायक हो जाता है। ___ मैंने अपने जीवन के चौबीसों घंटे और वर्षों, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जीवन ही इस देह की सेवा में व्यतीत किया है, पंचेन्द्रिय विषयों की व्यवस्था में निरन्तर दासवृत्ति से लगा रहा हूँ। यह तन भी मेरे काम तो आता नहीं अपितु अपनी स्वतंत्रवृत्ति से रोग एवं मृत्यु को प्राप्त होता है। यह तो मेरे साथ कृतघ्नता का कार्य करे और मैं इसका सेवक बना रहूँ, यही तो मेरी अज्ञानता है। जिन इष्टमित्र, परिवारजन आदि के प्रति मैं समर्पित रहा हूँ वे भी सब स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं और मेरा मोह बढ़ाकर दुर्गति दिलाने वाले दुःखदायी ही 16400 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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