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________________ समाधिमरण 2) राकेश जैन शास्त्री चतुर्गति भ्रमणरूप संसारचक्र में भ्रमण करते-करते महाभाग्य सम्पदा से मनसहित पंचेन्द्रिय दशा में उत्तमकुल, क्षेत्र आदि समागमों सहित मानव-देह पाकर इस जीव को निरन्तर भेदज्ञान के अभ्यास द्वारा क्षणिक, अविश्वसनीय एवं बीमारियों के घर रूप देह से विरक्त हो विषय-कषाय को विषरूप समझकर उनसे बचते हुए एकमात्र अपने, स्वाधीन, अनादि-अनन्त, कभी साथ न छोड़ने वाले अपने ज्ञान-दर्शन आदि चैतन्य वैभव युक्त, सदाकाल अंकुलता का अभाव कर निराकुल परमानन्द को देनेवाली एक अक्षय सत्ता ही विश्वास योग्य है, जानने योग्य है एवं ठहरने योग्य है तथा यही अनन्त ज्ञानियों द्वारा प्राप्त एवं प्रकाशित मोक्षमार्ग है। . जगत् में मिलने वाले संयोग तो नियम से वियोग स्वभावी हैं परन्तु जिन संयोगों के मिलने में हर्ष होता है उनके वियोग का काल इस जीव को अतिकष्टदायी, पीड़ाकारक प्रतीत होता है, परन्तु क्योंकि वह है तो संयोग ही, अतः समय आने पर वियुक्त तो होगा ही, यह जानकर विवेकीजन उदयाधीन संयोग के मिलने पर हर्ष वृत्ति नहीं करते प्रत्युत् संयोगों के मिलने को अपने लिए ‘संसार का बढ़ना अरे नर देह की यह हार है' जानते हैं। इन संयोगों को अपने पूर्वकृत परिणामों का ही फल जानकर उनसे आगामी जुड़ाव न रहे, यह विचारते हुए अपने को निरन्तर असम्बन्धित समझते हैं। पूर्व जन्मों में किये हुए परिणामों के अनुसार ही इस जीव को मनुष्य देह का संयोग मिला है जो कि "जन्मे मरे अकेला चेतन सुख-दुःख का भोगी। और किसी का क्या इकदिन यह देह जुदी होगी।।" जन्मक्षण से ही प्रत्येक समय करते-करते मरण की नजदीकी आती जा रही है। अन्य संयोगों के वियोग की तो बात ही क्या? जिससे हमारी अगाध प्रीति है, जिसके बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाते, ऐसी यह रोगमयी, मल-मूत्र से भरी हुई देह भी जन्मक्षण से ही हमारी आज्ञानुसार न चलते हुए अपने 162 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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