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________________ प्रीतिपूर्वक सल्लेखना को धारण करता है। जब प्राण जाने के कारण उपस्थित हो जायें तो यदि निःकषाय भाव से ही प्राण निकलें तो कल्याण ही है। इसमें तो आत्मा की विशुद्धता की जागृति ही है। सल्लेखना का विधान सर्वप्रकार से हितकारी ही है। बिना आशा तथा उपाय से, कण्ट, दुष्काल, वृद्धापन और रोग आदि आने पर रत्नत्रय स्वरूप धर्म को विधिवत् पालन हेतु शरीर त्यागना सल्लेखना या समाधिमरण कहलाता है। ध्यान, योग आदि पर्यायवाची शब्द हैं। जिस आत्मा में राग-द्वेष की ग्रन्थि हो तो वस्तुतः उसका समाधिमरण आत्महत्या ही है। राग, द्वेष, मोह, लज्जा, क्रोध, लालच, बड़प्पन, भय, आदि से तप करना, समाधि लेना, पहाड़ से गिरना, अग्नि में जलना, रेल में दबना, विष खाना, शस्त्र-अस्त्र से घात करना आदि कृत्य आत्महत्या ही है। जब तक उक्त विचार आत्मा को विकृत करते रहेंगे तब तक आत्मशान्ति की आशा करना व्यर्थ है। समाधि भूखों मरना नहीं है, समाधि शरीर कमजोर करना नहीं है, वह तो शुद्ध आत्मभाव का अन्वेषण, शुद्धात्म का चिन्तवन, शुद्धात्मतत्त्व के अविकारी भावों की जागृति, शाश्वत सुख की खोज, स्वरूप में रमण, अहिंसादि महाव्रतों की अडिग प्रतिज्ञा का पालन, ध्यान, ध्याता, ध्येय की एकता का प्रकाश, मोक्ष की श्रेणी है। यदि संयमी सम्यग प्रकार सल्लेखना धारण करे तो नियम से मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। यहाँ तक वज्रऋषभनाराच संहनन वाला तो उसी भव से मुक्ति-रमणी का स्वामी होता ही है अतः युक्तियुक्त-समाधिमरण आत्मोपकारी ही है। ‘रागात् अभावात् / ' जहाँ राग-द्वेष है वहाँ हिंसा है और जहाँ राग-द्वेष नहीं वहाँ हिंसा नहीं, किन्तु अहिंसा ही . है। आत्मा में राग-द्वेषादि विभाव की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है तथा उनका उत्पन्न होना हिंसा है। यही अहिंसा-हिंसा का लक्षण है तो समाधिमरण करनेवाला व्रती तो राग-द्वेष के नाश के अभिप्राय से एवं वीतराग भावों से अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है तो फिर आत्मवध का दोष कैसा? वहाँ तो वीतरागता का उज्ज्वल प्रकाश, आत्मा की विशुद्धता, शुद्ध भावों का अनुपम स्रोत, आत्मा के स्वभावरूप परिणमन है, अतः सल्लेखना को अषघात कहना आगम विरुद्ध है। “अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः / . अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल।। 755 / / " -पंचाध्यायी . यह तो सर्वमान्य है कि स्व या पर के प्रति हृदय में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। प्रथम तो जो प्राणी राग-द्वेष करेगा उसके आत्मा में तत्क्षण इसके प्रभाव से भाव विकृत हो जायेंगे। जिस पदार्थ में राग है उसके वियोग में द्वेष अवश्य होगा और जिसमें द्वेष है उसके नष्ट-भ्रष्ट के मानने में क्रोधादि भावों का सद्भाव सदैव रहेगा। वह नियम से किसी का पालन, किसी का ताड़न, किसी का घात, किसी का हरण प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 153
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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