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________________ उपसर्ग हुए? तत्काल के दीक्षित कोमलांग सुकुमार मुनि को स्यालनी ने 3 दिन पर्यंत शरीर भक्षण किया, परन्तु समाधि से विचलित नहीं हुए। गजकुमार मुनि को पूर्व जन्म के वैरी ने समस्त अंग में कीलें ठोक दी थी। भद्रबाहु मुनि को तीव्र क्षुधा रोग हो गया, परन्तु प्रतिज्ञा से विचलित नहीं हुए। काकन्दी नगरी में अभयघोष मुनि को पूर्व-जन्म के वैरी ने समस्त शरीर में कीलें ठोक कर चालनी की तरह शरीर कर दिया, परन्तु समाधि से चलित नहीं हुए। ऐसे-ऐसे महान् तपस्वी साधुओं का कोई सहायी नहीं हुआ? क्या उनसे अधिक वेदना है? कैसे दुःखी होते हो? तुम पर तो कोई उपसर्ग भी नहीं हुआ है, तुम्हारे समीप में सावधानी के लिए विद्वान् साधर्मीजन उपस्थित हैं। धैर्य धारण करो, भगवान् वीतराग के वचन-रूप ओषधि का पान करो। देखो, आगम में कहा है "जिणवयणमोसहमिणं विसमसुहविरेयणं अमिदभूदं। जरमरणवाहिवेयण खयकरणं सव्वदुक्खाणं / / " -मूलाचार ये जिनवचन रूप ओषधि इन्द्रिय-जनित विषय-सुखों का विरेचन करनेवाली है, अमृत स्वरूप है और जरा-मरण-व्याधि-वेदना आदि सब दुःखों का नाश करनेवाली है। इसप्रकार पंचपरमेष्ठी का ध्यान करता हुआ शरीर का त्याग करे सो कायसल्लेखना हैं। साथ ही में राग-द्वेष-मोहादि कषायों का कृश (क्षीण करना, जीतना) कषाय-सल्लेखना है। अन्तरंग में कषायों की सल्लेखना बिना काय-सल्लेखना व्यर्थ है, क्योंकि शरीर क्षीण तो रोगादि द्वारा व पराधीनता से सबके हो सकता है, इसलिए क्रोधादि कषायों को जिन्होंने जीत लिया है, वे ही सल्लेखना-धारण में विजय प्राप्त कर सकते हैं। विषय-कषाय-युक्तं आत्मा सल्लेखना का पात्र नहीं हो सकता है। आचार्यों ने आराधक का स्वरूप इसप्रकार बतलाया है “णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसाओ जिदिदिओ धीरो। अणिदाणो दिठिसंपण्णो मरंतो आराहओ होइ।।" -मूलाचार जो चेतन-अचेतन परवस्तु में ममता-रहित हो, अभिमान-रहित हो, क्रोधादि कषाय रहित हो, जितेन्द्रिय हो, पराक्रम-सहित हो, शिथिल न हो, रोगों की वांछा से रहित हो और सम्यग्दर्शन को भलीभाँति प्राप्त किया है- ऐसा आराधक ही * समाधि का पात्र हो सकता है। "आराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्म / उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण म लहइ निव्वाणं।।" -मूलाचार सम्यग्दर्शनादि चार आराधना से उपयुक्त आत्मा, अतिचार रहित आचरण करनेवाला मुनि अच्छी तरह मरण कर उत्कृष्ट तीन भव प्राप्त कर निर्वाण (मोक्ष) पद को प्राप्त होता है। 15000 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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