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________________ वह कभी चेतनधर्मी नहीं हो सकता। द्रव्यमन हृदय स्थान में आठ पांखुड़ी के कमलाकार रूप में है तथा अतिसूक्ष्म वर्गणाओं से निर्मित है। भावमन कर्मों के क्षयोपशम के अधीन है। सामान्यतः कर्मों का विभाजन द्रव्यकर्म, नोकर्म तथा भावकर्म के रूप में किया गया है। उनमें से ज्ञानावरणादि आठ कर्म द्रव्यकर्म - कार्माण वर्गणाओं से रचित हैं। कार्माण वर्गणाओं से निमित्त औदारिक - वैक्रियिक, आहारक, तैजस शरीर रूप नो कर्म हैं तथा राग, द्वेष आदि आदि आत्मा के वैभाविक परिणाम (भावकर्म) हैं। उपर्युक्त तीन कर्मों से भिन्न आत्मा का परिचय प्राप्त कर मानसिक, वाचिक और कायिक तथा विभाव-भावों से भिन्न आत्मा का श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा कहलाता है। जो अन्तरात्मा भेद-विज्ञान के माध्यम से निरन्तर स्वभाव की रक्षा करने में प्रवृत्त होता है वही क्रमशः परमात्म पद को प्राप्त हो सकता है। प्रकारान्तर से अन्तरात्मा का चिन्तन और व्यवहार परमात्म पद की प्राप्ति में साधन बन जाता है। . सम्यग्बोधि का अभिप्राय भी यही है- बारह भावना में इस यथार्थ बोध के लिए भावना भाने की प्रेरणा की गई है। "धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान। दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान / / " -कवि भूधरदास जीवन की सार्थकता ज्ञानार्जन में और ज्ञान की सार्थकता सद्विवेक पूर्ण आचरण में निहित है। धर्ममार्ग का अभिधेय एक मात्र यही है कि किसी भी तरह सद्विवेक पूर्ण आचरण हो। अज्ञानी का आचरण विवेक शून्य होता है। पशु और मनुष्य पर्याय में अन्तर भी यही है। यदि इस अन्तरं की प्रतीति न हो तो मनुष्य का जीवन-व्यवहार पशु तुल्य है। इन्द्रिय-विषय-व्यापारनिष्ठ' मनुष्य का जीवन ऐहिक और दैहिक पूर्ति के निमित्त होता है और आत्मनिष्ठ व्यक्ति का जीवन उत्तरोत्तर आत्मगुणों की सम्प्राप्ति की ओर ऊर्ध्वगामी होता है। इसीलिए अन्तरात्मा देह को भिन्न मानता हुआ गृहवास न छोड़ते हुए भी अनासक्तिपूर्वक अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन करता है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' को दृष्टि में रखकर आवश्यक आहार-पानी देता है। अन्तरात्मा की चिन्तन की दिशा ही बदल जाती है। उसका चिन्तन कुछ इस प्रकार होता है- 84 लाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ तद् तद् पर्यायों में जन्मा और मरा / ज्ञानद्धि जागृत नहीं हुई। तीव्र मिथ्यात्व के सद्भाव में क्रोध-मान-माया-लोभ से जीवन व्यतीत किया। यह मेरा अज्ञान था जिसके कारण जो आत्मलाभ प्राप्त होना चाहिए था वह न हुआ। जब मनुष्य पर्याय में ज्ञान को प्राप्त कर तदनुकूल आचरण से आत्म लाभ हो सकता है - अन्यथा जिस तरह बलदेव बुद्धिभ्रम और मोहापन्न होकर नारायण के मृत शरीर की सेवा-सुश्रूषा 1201 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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