SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का चक्रव्यूह भेदने की क्षमता केवल जैनदर्शन में निहित है। मृत्यु के प्रति हँसकर देखना, उसका शान्ति से स्वागत करना यह बात जैनधर्म में है। इस क्रिया को संल्लेखना अथवा समाधिमरण कहते हैं। आज स्वेच्छामरण शब्द प्रचलित है। स्वेच्छामरण के सम्बन्ध में बहुत चर्चा होती रहती है लेकिन सल्लेखना का स्वरूप वस्तुनिष्ठ दृष्टि से समझ लेना चाहिए। लोग स्थूल दृष्टि से देखते हैं और सल्लेखना को आत्मघात की रीति बताते हैं। यह उनका केवल अज्ञान है। . ___ आत्मघात करनेवाला व्यक्ति क्या शान्त प्रसन्नचित्त से यह क्रिया कर सकता है? वह तो विकारवश, अशान्त एवं रुग्ण मनःस्थिति में रहता है। विफलता के कारण उसे जीवन त्यागने की तुरन्त इच्छा होती है। ऐसा मरण शान्ति और आनंन्द का उदाहरण नहीं होता। अनेक विकार और वासनाओं का जंजाल जब मन में तीव्र अशान्ति उत्पन्न करता है, तब मृत्यु केवल दुःख और प्रक्षोभ का रूप बनकर ही आती है। सल्लेखना को जैनशास्त्र में मृत्यु-महोत्सव कहा है। क्या मृत्यु भी उत्सव की बात हो सकती है? शरीर के पिंजर से आत्मपक्षी का स्वतन्त्र होना –यह निश्चित ही उत्सव की घटना है। सल्लेखना आत्महत्या नहीं है। जो लोग सल्लेखना और आत्महत्या को एक ही समझते हैं। उनके अज्ञान पर टिप्पणी करने का प्रयास अनावश्यक है। आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज सल्लेखना के सम्बन्ध में लिखते हैं जब पूर्ण वीतरागता का चरम उदय हो और शरीररूप परपदार्थ में भी बन्धन की अनुभूति होने लगे तब निर्ग्रन्थ मुनि और त्यागीजन सल्लेखना द्वारा संसार के बन्धन सूत्र को सदा के लिए तोड़ देते हैं। सल्लेखना मुक्तिदायक होती है। जीवन में सल्लेखना धारण करनेवाले मुनि को जीने की अभिलाषा नहीं होती। उनका सम्पूर्ण जीवन केवल धर्म का आचरण करने के लिए होता है। धर्म ही जीवन की आधारशिला होती है। जब धर्म का आचरण करने की क्षमता शरीर में नहीं रहती तब ऐसे शरीर का त्याग करना ही धर्म-कर्त्तव्य बन जाता है। आज तक असंख्य मुनियों ने सल्लेखनापूर्वक अपने देह का विसर्जन किया है। उन्होंने मृत्यु को स्वागतशील वृत्ति से आमन्त्रित किया। ___महाराष्ट्र के एक सन्त तुकाराम ने अपने काव्य में लिखा है- मैंने मेरी मृत्यु अपने आँखों से देखी है। यह उत्सव अनुपम है। इतनी निरामय दृष्टि अपनी मृत्यु के प्रति रखना सचमुच में अवर्णनीय है। यह विशेषता सल्लेखना में होती है। आदर्श मृत्यु का यह चित्र कितना सुन्दर होता है। सल्लेखना धारण करनेवाले वीतरागी मुनीश्वर आत्मचिन्तन में निमग्न होते हैं और अपने शरीर का सम्बन्ध सहज भाव से छोड़ देते हैं और मुक्ति के पथ से अपनी यात्रा बढ़ाते हैं, यही महोत्सव है। परम आनन्द से देह का बन्धन छोड़ना और आत्मस्वरूप में विलीन होना- यह एक दिव्य अनुभूति होती है। समाधिमरण अथवा सल्लेखना तो मृत्यु 10400 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy