SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुक्ति कहाँ? अतः देह कृश होने के साथ-साथ कषायों के कृश होने पर ही सल्लेखना का स्वरूप घटित होता है। पुराणकार ने 'रागादि' शब्द का प्रयोग करके कर्मबन्ध के कारणभूत राग-द्वेष और मोह तीनों की ओर संकेत किया है। उन्होंने सल्लेखना को इनकी अनुत्पत्ति का कारण कहा है। इस कथन से यह भावार्थ फलितं होता है कि सल्लेखना में देह और कषायों को कृश करना तो अपेक्षित होता ही है, इन दोनों के साथ-साथ राग-द्वेष और मोह का कृश होना भी आवश्यक होता है। इसप्रकार पूर्ण सल्लेखना की सार्थकता के लिए पुराणों में तीन बातें मुख्य मानीं गयी हैं- 1. व्रतों की साधना करते हुए मरणान्तकाल में देह से. ममत्व तोड़कर उसे कृश करना 2. कषायों के हेतु उपस्थित होने पर भी हृदय में समता और शान्ति भाव बनाये रखना और कषाय कृश करना 3. राग-द्वेष तथा मोहात्मक प्रवृत्तियों से निवृत्ति / सल्लेखना मरण तीन प्रकार का बताया गया है- 1. भक्तप्रत्याख्यान 2. इंगिनीमरण 3. प्रायोपगमन / इनमें दिन, मास, वर्ष आदि की प्रतिज्ञा लेकर जिसमें अन्न-पान ग्रहण को कम करते हुए शरीर छोड़ा जाता है, वह भक्तप्रत्याख्यान मरण कहलाता है। इसका समय अन्तर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष पर्यन्त का होता है। इसमें साधक अपने शरीर की सेवा स्वयं भी करता है और दूसरों से भी करा सकता है। जिसमें साधक अपने शरीर की परिचर्या स्वयं करता है, दूसरों से नहीं कराता उसे इंगिनीमरण और जिसमें साधक अपने शरीर की नं स्वयं परिचर्या करता है और न दूसरों से कराता है उसे प्रायोपगमन सल्लेखना कहते हैं। पुराणों में सल्लेखना के तीसरे भेद प्रायोपगमन संन्यास के उल्लेख मिलते हैं। यह तीनों भेदों में उत्कृष्ट भेद है। इस संन्यास में तपस्वी साधु रत्नत्रय रूपी शय्या पर उपविष्ट होता है, बैठता है। पुराणकारों ने इस क्रिया में ऐसा किया जाने से इसे 'प्रायोपवेशन' नाम दिया है। इस संन्यास में अधिकतर रत्नत्रय की प्राप्ति होने से इसे 'प्रायेणोपगम' और इससे कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होने से इसे 'प्रायेणापगम' संज्ञाएँ भी दी गई हैं। प्रायोपगमन का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पुसणों में बताया गया है कि इसमें प्रायः संसारी जीवों के रहने योग्य नगर ग्राम आदि त्याज्य होते हैं, किसी वन का आश्रय लिया जाता है। इसमें शरीर का न अपने द्वारा उपचार किया जाता और न दूसरों के द्वारा उपचार कराया जाता है। यहाँ तक कि उपचार की चाह भी नहीं रखी जाती। शरीर से ममत्व तोड़ दिया जाता है। शरीर से निराकुल रहा जाता है।' पुराणों में व्रतियों मुनियों के सल्लेखनात्मक अंश के अध्ययन से विदित होता है कि सल्लेखना गुरु की साक्षी में ही ली जाती है। इसमें शरीर से ममता नहीं रखी जाती तथा वीर शय्या आसन में रहना होता है। सल्लेखना कराने वाले गुरु को पुराणों में निर्यापकाचार्य' कहा गया है। ऐसे आचार्य सल्लेखनाधारी व्रती को 10000 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy