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________________ मृत्यु के आनन्ददायी उत्तम स्वरूप विधायक प्रतीक व्यक्तित्व - महात्मा कबीर 195 गंग लहर मेरी टूटी जंजीर, मृगछाला पर बैठे कबीर / __ कहे कबीर कोई संग न साथ, जल थल राखत है रघुनाथ / / इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में जब हम कबीर के आत्मचैतन्य की शक्ति और परमानन्दानुभूति की लोकोत्तर मधुरता पर विचार करते हैं तो कबीर के आत्मतेज की आभा स्पष्ट उद्भासित होती है। साथ ही इसका भी स्पष्ट आभास मिल जाता है कि कबीर की साधना धर्म, अर्थ काम ही नहीं मोक्ष के लिए भी नहीं थी, वह सिर्फ आत्मानुभूति की सिद्धि के लिए थी जो सतत् गतिशील रहने वाली थी। वेदान्त के अहं ब्रह्मास्मि के स्थिर सिद्धान्त से उनकी उक्तियाँ ऊपरी साम्य रखती प्रतीत होती हैं। किन्तु उसकी अन्तर्निहित भावना ब्रह्म से एकाकार होने को ठहराव बिन्दु के रूप में स्वीकार नहीं करती। उससे इसकी भिन्नता स्पष्ट हो जाती है क्योंकि कबीर ने अपने लक्ष्य-बिन्दु पर अपनी पहुँच की जो सूचना प्रकटित की है वहाँ यह अन्तर सहज ही अनुमानित हो जाता है। वे कहते हैं - हम न मरै मरिहै संसरा, हम। मिल्या जियावनहारा। . इस स्थल पर ही कबीर की आत्मानुभूति की गतिशीलता दृष्टिगोचर हो जाती है। “जियावनहारा” जब मिल गया तो अक्षय आनन्द के सतत् प्रवाही स्रोत में सहज स्नात होते रहने का द्वार खुल गया। परमानन्दानुभूति की कालबद्धता अब कहाँ रही जब जियावनहारा ने ही हाथ लगा उसे अपने पास खींच लिया। सच पूछा जाये तो जीव के लिये मृत्यु के जितने भी स्वरूप चिन्तकों और दार्शनिकों द्वारा स्थिर किये गए हैं, उन सबसे विलग एक परिपक्व और मौलिक स्वरूप का विधान करके महात्मा कबीर ने युग-युगान्तर तक मानव मात्र के नयन पट खोलने का सोपान प्रस्तुत किया है। इनता ही नहीं निर्गुणोपासना की चिरसनातन विधि से भाव-भक्ति को जोड़कर कबीर ने उसमें हृदय पक्ष के संयोग की सम्भावनाओं को बल प्रदान करने का उत्कृष्ट कार्य किया है। अंततः मध्य युग के इस युग-प्रवर्तक सन्त महाकवि के संबंध में यही कहा जा सकता है कि वे परम स्वतन्त्र चेतना के अधिकारी युगद्रष्टा थे। उनकी जीवन और जीवनान्तर की परख लौकिकता की सीमा-रेखा को पार कर बहुत आगे निकल गयी थी। उनकी मान्यता की सच्ची समझ हमें यही बताती है कि उनकी दृष्टि में व्यक्ति अपने संस्कारों और योग्यताओं से युक्त एक स्वतन्त्र इकाई है और अपनी स्वतन्त्र परिधि में वह सतत् भ्रमणशील है। परम सत्ता के अंश से विभासित अपने लक्षित पथ पर अपनी ही चेतना के इशारे पर उसे अग्रसर होना है और अपने लक्ष्य-बिन्दु पर अपनी पहुँच का पूरा स्वाद लेने का वह अधिकारी है।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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