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________________ श्रीमद्-विपाक-सूत्रम् / श्रु० 2 :: अध्ययनं 1 ] नेरइयत्ताए उववजिहिइ, एवं संसारो जहा पढमे तहा नेयव्वं जाव वणस्सतिसु 1 / सा णं ततो अशांतरं उव्वट्टित्ता सव्वतोभद्दे नगरे मयूरत्ताए पञ्चायाहिति, से गां तत्थ साउणिएहिं वधिए समाणे तत्थेव सव्वतोभद्दे नगरे सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, से गां तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणां थेराणां अंतिए केवलं बोहिं बुज्झिहिति पव्वजा सोहम्मे, से गां तायो देवलोगायो बाउक्खएगां जाव कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! महाविदेहे जहा पढमे जाव सिन्झिहिइ जाव घेतं काहिति 10 / एवं खलु जंबू ! समणेगां जाव संपत्तेगां दुहविवागागां दसमस्स अज्झयणस्स श्रयम? पन्नत्ते, सेव भंते 2 जाव विहरति ॥सू० 30 // दुहविवागो दससु अज्झयणेसु // पढमो सुयक्खंधो सम्मत्तो॥ // इति दशममध्ययनम् // श्रु० १अ० 10 // // इति प्रथमः श्रुतस्कन्धः // 1 // // अथ सुखविपाकाख्यो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः // // अथ सुबाहुनामकं प्रथममध्ययनम् // तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे गुणसिले चेइए सोहम्मे समोगढे, जंबू जाव पज्जूवासमाणे एवं वयासी-जति णं भंते ! समणेणां जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अयमढे पराणत्ते सुहविवागाणं भंते ! समोणं जाव संपत्तेगां के पट्टे पन्नत्ते ?, तते णं से सोहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! समणेणां जाव संपत्तेगां सुहविवागागां दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-सुबाहू 1 भदनंदी 2 य, सुजाए य 3 सुवासने 4 / तहेव जिणदासे 5, धणपती य 6 महब्बले 7 // 1 // भद्दनंदी 8 महच्चंदे 1 वरदत्ते 10 / 1 / जति णं भंते ! समणेगां जाव संपत्तेगां सुह
SR No.004365
Book TitleAgam Sudha Sindhu Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendravijay Gani
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1976
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_gyatadharmkatha, agam_upasakdasha, agam_antkrutdasha, agam_anuttaropapatikdasha, agam_prashnavyakaran, & agam_vipakshrut
File Size12 MB
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