SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 25 ) विरोधी वादोंका समन्वय किया और भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार किया / एकान्त भेद और अभेद मानने पर जो दोष होते हैं वे उभयवाद मानने पर नहीं होते / जीव और शरीरका भेद इसलिए मानना चाहिये कि शरीरका नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्ममें मौजूद रहती है या सिद्धावस्थामें अशरीरी आत्मा भी होती है। अभेद इसलिये मानना चाहिये कि संसारावस्थामें शरीर और आत्माका क्षीर-नीरवत् या अग्निलोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है इसीलिये कायसे किसी वस्तुका स्पर्श होने पर आत्मामें संवेदन होता है और कायिक कर्मका विपाक आत्मामें होता है। भगवतीसूत्र में जीवके परिणाम दश गिनाये हैं यथा-गति परिणाम, इन्द्रिय परिणाम, कषाय परिणाम, लेश्या परिणाम, योग परिणाम, उपयोग परिणाम, ज्ञान परिणाम, दर्शनपरिणाम, चारित्रपरिणाम, और वेदपरिणाम।-भग०१४.४.५१४ जीव और कायका यदि अभेद न माना जाय तो इन परिणामोंको जीवके परिणामरूपसे नहीं गिनाया जा सकता। इसी प्रकार भगवती में ( 12. 5. 451) जो जीवके परिणामरूपसे वर्ण, गन्ध , स्पर्श का निर्देश है वह भी जीव और शरीर के अभेदको मान कर ही, घटाया जा सकता है / अन्यत्र गौतमके प्रश्न में निश्चयपूर्वक भगवान् ने कहा है कि___ गोयमा ! अहमेयं जाणामि अहमेयं पासामि अहमेयं बुज्झामि . . . . . . जं णं तहागयस्स जोवस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स सवेदगस्स समोहस्स सलेसस्स ससरी र स ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पन्नयति तंजहाकालते वा जाव सुविकलते वा, सुभिगंधत्ते वा दुब्भिगंधत्ते वा, तित्ते वा जाव महुरत्ते वा, कक्खडते वा जाव लुक्खत्ते वा . . . . . . . . "-भग० 17. 2. __ अन्यत्र जीवके कृष्णवर्ण पर्याय का भी निर्देश है।-भग० 25. 4. / ये सभी निर्देश जीव शरीर के अभेदकी मान्यता पर निर्भर है। इसी प्रकार आचारांग में आत्मा के विषयमें जो ऐसे शब्दों का प्रयोग है:___ "सम्वे सरा नियट्टन्ति तक्का जत्थ न विज्जति, मई तत्थ न गाहिया / ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने / से न दोहे न हस्से न वट्टे न तसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न इत्थो न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नस्थि / "- आचा० सूत्र 170
SR No.004351
Book TitleAgam Yug ka Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Cultural Research Society
Publication Year
Total Pages36
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy