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________________ तत्वसार 'बहिरंतरा' बाह्याभ्यन्तरगतान् चित्तगतवचनात्मकान् सामस्त्येन परभावान् ‘मोत्तूर्ण' त्यक्त्वा स्वशुद्धात्मानं ध्यायतु स्मरतु चिन्तवतु 'ध्ये चिन्तायां' इत्यर्थः। इति मत्वा तजभव्यजनैवस्तुतो निरञ्जनभावैर्भवितव्यमिति भावार्थः // 18 // अथ भो भगवन्, निरञ्जनस्य लक्षणं कोहगिति भगवानाहमूलगाथा-जस्स ण कोहो माणो माया लोहो य सल्ल लेस्साओ। . ___ जाइ जरा मरणं चिय णिरंजणो सो अहं भणिओ // 19 / / संस्कृतच्छाया-यस्य न कोष मानो माया लोभश्च शल्य-लेश्याः। जाति-ारा-मरणानि च निरञ्जनः सोऽहं भणितः // 19 // टीका-'सो अहं भणिमो' इत्यादि-वृत्तिकारो मुनिर्विवृणोति-तथा च स एवाहं भणितः / स एव कः ? 'णिरंजणो' कर्माजनरहितत्वात् निरञ्जनः। स एव निरञ्जन:-'जस्स ण कोहो. यस्य आनें निरंजनका लक्षण कहै हैं भा० व०-सो मैं हूँ सो कह्या सो कैसा है निरंजन, जाकै क्रोध नाहीं, मान नाही, माया नाहीं, लोभ नाहीं, शल्य नाही, माया मिथ्या निदान नाहीं, अर लेश्या कृष्ण नील कापोत पीत पद्म शुक्ल लेश्यानि करि रहित ऐसा // 19 // वचनात्मक बाहिरी विकल्पोंको एवं मनोगत विचारात्मक आन्तरिक विकल्पोंको सर्वप्रकार छोड़कर अपने शुद्ध आत्मस्वरूपका ध्यान करो, वार-वार स्मरण और चिन्तवन करो। 'ध्यै' यह संस्कृतभाषाकी धातु चिन्तन करनेके अर्थमें प्रयुक्त होती है। ऐसा समझकर आत्मज्ञ भव्यजनोंको वस्तुतः निरंजनभाववाला होना चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है॥१८॥ ___ अब शिष्य पूछता है-हे भगवन्, निरंजनका लक्षण कैसा है ? ऐसा पूछनेपर भगवान् देवसेन कहते हैं अन्वयार्थ-(जस्स) जिसके (ण कोहो) न क्रोध है, (ण माणो) न मान है, (ण माया) न माया है, (ण लोहो) न लोभ है, (ण सल्ल) न शल्य है, (ण लेस्साओ) न कोई लेश्या है, (ण जाइजरा-मरणं चिय) और न जन्म, जरा और मरण भी है, (सो) वही (णिरंजणो) निरंजन (अहं) मैं (भणिओ) कहा गया हूँ। टीकार्थ-'सो अहं भणिओ' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि अर्थ-विवरण करते हैं-वही मैं कहा गया हूँ। प्रश्न-वही कौन ? उत्तर-निरंजन मैं / कर्मरूप अञ्जनसे रहित होनेके कारण मैं निरंजन हैं। वही निरंजन है-'जस्स ण कोहो' अर्थात् जिसके क्रोध नहीं हैं। . .
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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