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________________ तत्त्वसार 23 शास्त्रज्ञा बहुश्रुतास्तेषु निष्कपटभावभक्तिः बहुश्रुतभक्तिः द्वादश भावना 12 / जिनोक्तद्रव्यश्रुतप्रतीतिरूपा भक्तिः प्रवचनभक्तिस्त्रयोदश भावना 13 / सर्वज्ञोक्तसमतास्तुति-वन्दना-प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गलक्षणषडावश्यकेषु निरतिचारता या सा आवश्यकापरिहाणिरूपा चतुवंश भावना 14 / जिनेन्द्रोक्तनिश्चय-व्यगहारमोक्षमार्ग स्वयमाचरन् सन् भव्यजनानामग्रे प्रकाशयतीति मार्गप्रभावना पञ्चदशका 15 / सर्वज्ञानां प्रकर्ष वचनं प्रवचनं तस्मिन् वात्सल्यरूपा प्रवचनवत्सलत्वं षोडश भावना 16 / इति श्रीतीर्थंकरनामगोत्रसमवशरणादिविभूतिषोडशकारणभावनात्मकः षोडशविधो धर्मः। - इत्यादिजिनोक्तधर्मस्य बहवो भेदाः संख्यातासंख्याताश्च भवन्ति। अत्र भावनाग्रन्थे ग्रन्थमयस्त्वभयावस्माभिर्नोच्यते। इत्येवंविधस्य धर्मस्य प्रवर्तनाथ भव्यजनप्रबोधनार्थं च / (के भव्याः?) ते भव्याः कथ्यन्ते येषां भाविकाले रत्नत्रयं प्रकटीभविष्यति ते भव्याः। येषांत कालान्तरेऽपि केवलज्ञानं व्यक्तं न भविष्यति ते अभव्याः / केचनाभव्यसमाना भव्याः, एके दूरभव्याः केचनाऽऽसन्नभव्याः। इति भव्यत्वलक्षणम् // 2 // . अथ कतिपयविधं तत्त्वमिति प्रश्ने सति भट्टारकश्रीदेवसेनदेवा आहुःबहुश्रुतभक्ति नामकी बारहवीं भावना है 12 / जिन-भाषित द्रव्यश्रुतकी प्रतीतिरूप श्रद्धा रखना, उसके अभ्यास में प्रीति एवं भक्ति रखना सो प्रवचनभक्ति नामकी तेरहवीं भावना है 13 / सर्वज्ञ-प्ररूपित समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग लक्षणवाले छह आवश्यकोंमें निरतिचारितारूप जो प्रवृत्ति है, वह आवश्यकापरिहाणिरूप चौदहवीं भावना है 14 / जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे गये निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गका स्वयं आचरण करते हुए भव्यजनोंके आगे उसे प्रकाशित करना सो मार्गप्रभावना नामकी पन्द्रहवीं भावना है 15 / सर्वज्ञदेवोंके प्रकृष्ट वचनोंको प्रवचन कहते हैं, उस प्रवचनमें वात्सल्य रखना सो प्रवचनवत्सलत्व नामकी सोलहवीं भावना है 16 / .. इस प्रकार श्रीतीर्थकर-नामगोत्रकी और समवशरणादि विभूतिकी कारणरूप सोलह कारणभावनात्मक सोलह प्रकारका धर्म है। , इत्यादि प्रकारसे जिनोक्त धर्मके बहुत भेद हैं जो कि विस्ताररूपमें संख्यात और असंख्यात होते हैं। किन्तु इस भावनाग्रन्थमें ग्रंथ-विस्तारके भयसे हम (टीकाकार) नहीं कहते हैं। इस उक्त प्रकारके धर्मके प्रवर्तन करनेके लिए तथा भव्यजनोंके प्रबोधके लिए भी देवसेनाचार्य इस तत्त्वसारकी रचना कर रहे हैं। प्रश्न-कौन जीव भव्य कहलाते हैं ? ... उत्तर-जिन जीवोंके भविष्यकालमें रत्नत्रय धर्म प्रकट होगा, वे जीव भव्य कहलाते हैं / किन्तु जिन जीवोंके कालान्तरमें भी केवलज्ञान प्रकट नहीं होगा; वे जीव अभव्य कहे जाते हैं। कितने ही अभव्यके समान भव्य होते हैं, कितने ही जीव दूरभव्य होते हैं और कितने ही आसन्न (निकट) भव्य होते हैं। इस प्रकारसे भव्य और अभव्यका स्वरूप जानना चाहिए // 2 // .. वह तत्त्व कितने प्रकारका है ? यह प्रश्न होनेपर भट्टारक श्रीदेवसेनदेव उत्तर देते हैं
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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