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________________ तत्वसार मागयं च तं जई' यदि चेत्तत्पूर्वोक्तमेव कर्म स्वयमुदयमागतं मम ज्ञाततस्वस्य / तदा किमभूत् ? सो लाहोणत्थि संवेहो' स एवापूर्वो लाभः, सन्देहो भ्रान्तिर्वा नास्ति / कस्मात् ? परम्परया परमात्मतत्त्वोपलब्धिभाक् / ततः पूर्वोपार्जितशुभाशुभकर्मण्युदयागते समभावेन. भाव्यं भव्यजीवेनेति भावार्थः // 50 // ___अथ पुनरपि शुभाशुभकर्मणां फलमुपभुखानः सन् यो रागद्वेषं न करोति सोऽभिनवकर्माणि . न बघ्नातीत्यभिप्रायं मनसि सम्प्रधार्य परमाराध्याचार्यश्रीदेवसेनदेवाः सूत्रमिदं प्रतिपादयन्तिमूलगाथा-भुजंतो कम्मफलं कुणइ ण रायं तह य दोसं च / सो संचियं विणासइ अहिणवकम ण बंधेइ // 51 // . संस्कृतच्छाया-भुजानः कमफलं करोति न रागं तथैव द्वेषं च। स सञ्चितं विनाशयत्यभिनवं कर्म न बध्नाति // 51 // टीका-भुनंतो कम्मफलं' इत्यादि, पदखण्डनारूपेण टीकाकारेण व्याख्यानं क्रियते'भुंजतो कम्मफलं कुणइ ण रायं तह य दोसं च' यः कश्चित् स्वसंवेदनशानी स्वशुद्धात्मस्वभाव आगें कहैं हैं-उदयमें आया जो कर्मकू भोगता राग द्वेष नाहीं कर है, ताकें पूर्व-संचित तौ कर्म नष्ट होय है, अर नवीन कर्म नाहीं बंधे है भा० व०--कर्मफलकू भोगता राग नांही करे है, तैसें ही द्वेष हु नांही करै है, सो मुनि संचय कीया पूर्व कर्मकू विनाश करे है, अर नवीन कर्मकू नाही बांधे है / भावार्थ-साता वेदनीय कर्मका उदयकरि प्राप्त भया सुख ताविर्षे रागी नांही होय है, अर असाता कर्मका उदयकरि प्राप्त भया दुःखकू भोगता दुःख नाही मान है। ते ही वीतरागी मुनि चिरकाल संचित कर्मकू तो नाश करें हैं, अर रागरूप चिक्कणासके अभावतें नवीन बंध नाही कर है / सिद्धान्तं ऐसा है रागी कर्मनिकू बांध है, वीतरागी कर्मनित छूट है / यो ही जिनेन्द्रका मतका संक्षेप जानना बंध-मोक्षका // 51 // प्रश्न-तो क्या हुआ? उत्तर-'सो लाहो णत्थि संदेहो' अर्थात् वही मेरे अपूर्व लाभ हुआ है, ऐसा जानना चाहिए, इसमें कोई सन्देह या भ्रान्ति नहीं है। क्योंकि ऐसे विचारसे आत्मा परम्परया परमात्मतत्त्वकी उपलब्धिवाला होता है। इसलिए पूर्वोपार्जित शुभ-अशुभ कर्मका उदय आनेपर भव्यजीवको समभाववाला होना चाहिए / यह इस गाथाका भावार्थ है // 50 // ___अब फिर भी शुभ-अशुभ कर्मोके फलको भोगता हुआ जो पुरुष राग-द्वेष नहीं करता है, वह नवीन कर्मोको नहीं बांधता है, यह अभिप्राय मनमें धारणकर परम आराध्य आचार्यश्रीदेवसेनदेव यह वक्ष्यमाण सूत्र प्रतिपादन करते हैं-- ____ अन्वयार्थ जो भव्य जीव (कम्मफलं) कर्मोके फलको (भुजंतो) भोगता हुआ (ण राय) न रागको (तह य) और (दोसं च) न द्वेषको (कुणइ) करता है (सो) वह (संचियं) पूर्व संचित कर्मको (विणासइ) विनष्ट करता है और (अहिणवकम्म) नवीन कर्मको (ण बंधेइ) नहीं बांधता है। _____टीका-'भुंजतो कम्मफलं' इत्यादि गाथाका टीकाकार व्याख्यान करते हैं जो कोई स्वसंवेदन ज्ञानी अपने शुद्ध आत्मस्वभावकी भावनासे रहित होकर रागादि विषय-कषायसे सहित
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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