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________________ तत्वसार टीका-'जह कुणह को विभेयं' इत्यादि-परखन्डनारपेणोत्तरका भट्टारकबीपङ्कजकोतिना व्याख्यानं क्रियते। तबचा-यथा कश्चिद वक्षः पुरुषः करोति / कम् ? भेदम् / कयोः ? पाणिय-बुद्धाण तक्कजोएणं' पानीय दुग्धयोः सहजातयोः / केन प्रकारेण ? तर्कप्रयोगेण पृथक पृथक् करोतीत्यर्थः / 'गाणी वितहा भेयं करेई वीतरागनिर्विकल्पनिमशुतात्मभवामझानानुभूतिरूपभेदाभेवरत्नत्रयभावनोत्पन्नस्वसंवेदनमान्यपि तव पूर्वोक्तदृष्टान्तन्यायन भेवं करोति / केन कारणेन ? 'परमाणजोएण' बरण्यानयोगेन वरं प्रषानं च तद ध्यानं च बरध्यानम्, बरख्यानस्य योगो वरध्यानयोगः, तेन वरध्यानयोगेन / कयोर्भवम् ? पूर्वोक्तस्व-परद्रव्यस्वरूपयोरिति मे कृत्वा मुक्तिललनाभिलाषिणा पुषण निजात्मतव्यमुपादेयानपा निरन्तरं स्मरणीयं भवतीति भावार्थः // 24 // अथ ध्यानेन भेदं कृत्वा किं करोतीति विकल्प मनसि सम्प्रदाय सूत्रमिवं प्रतिपाबपति सूत्रकर्ता / तथा हि-- मूलगाथा-झाणेण कुणउ भेयं पुग्गल-जीवाण तह य कम्माणं / घेत्तव्वो णिय अप्पा सिद्धसरूवो परो बंभो // 25 // भा० व०-पूर्वोक्त धर्म शुक्लध्यानकरि सोही पूर्वोक्त ज्ञानी भेदकू भिन्न-भिन्न करो। कोन का भेद कर? पगदल जीवका, शरीर आत्माका। तेसे ही ज्ञानी ज्ञानावरणादि टीकार्य-(जह कुणइ को वि मेयं) इत्यादि गाथाका उत्तरकर्ता भट्टारक श्री पंकज (कमल) कत्ति अर्थ-व्याख्यान करते हैं-से कोई दक्ष (कुवाल) पुरुष (पाणिय-खाणं) पानी और दूधका जो कि गायके स्तनोंसे एक साथ मिले हुए निकलते हैं-(तक्कजोएण) तकके प्रयोग द्वारा पृषापृथक् रूपसे भेद कर देता है (णाणी वि तहा भेयं करेइ) वीतराग निर्विकल्प अपने शुद्ध आत्माके श्रद्धान, ज्ञान और अनुभूतिरूप भेदाभेदात्मक रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न स्वसंवेदन शानी भी उसी प्रकार पूर्वोक्त दृष्टान्तके न्यायसे भेद कर देता है। .... प्रश्न-किस कारणके द्वारा भेद करता है ? . उत्तर-'वरझाणजोएण' वर अर्थात् प्रधान जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान हैं उनके योगसे भेद करता है। प्रश्न-किनका भेद करता है ? उत्तर-पूर्वोक्त स्व-पर द्रव्यस्वरूप जीव और कर्मोंका भेद करता है। अतएव मुक्ति-ललनाके अभिलाषी पुरुषको उपादेयबुद्धिसे अपने शुद्ध आत्मद्रव्यका निरन्तर स्मरण करना चाहिए / यह इस गाथाका भावार्थ है / / 24 / / _ अब ध्यानके द्वारा भेद करके ज्ञानी पुरुष क्या करता है, ऐसा विकल्प मनमें धरकर सूत्रकार देवसेन यह वक्ष्यमाण सूत्र कहते हैं अन्वयार्थ (झाणेण) ध्यानसे (पुग्गल-जीवाण) पुद्गल और जीवका (तह य) और उसी प्रकार (कम्माणं) कर्म और जीवका (मेयं) मेद (कुणउ) करना चाहिए। तत्पश्चात् (सिद्धसरूवो) सिद्ध-स्वरूप (परो बंभो) परम ब्रह्मरूप (णिय अप्पा) अपना भात्मा (पेत्तव्यो) ग्रहण करना चाहिए।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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