________________ ग्लो० 484:537] वैराग्यरतिः / ददृशे तावदेवोच्चैः प्रोढं परबलं मया / आगतं मबलं दृष्ट्वा सन्नह्याभिमुखं च तत् / / 514 // गर्जद्गजबलं वल्गदश्ववारकदम्बकम् / तदैवायोधनं लग्नमुद्वेलाम्बुधिसन्निभम् // 515 / / / 'प्रगष्टा मद्भटाः सर्वे यवनस्य बलात् ततः / अहं त्वभिमुखं योद्धं गतः सत्वरमेककः // 516 // . स्वयं यवनराजोऽथ सह योद्धं मयाऽऽगतः / रथौ चातीव मिलितौ रभसादुभयोस्ततः // 517 // पतितोऽहं रथे तस्य द्रुतमुत्पत्य सिंहवत् / शीर्षमस्य स्वहस्तेन त्रोटितं पुष्पवृन्तवत् // 518 // अस्मद्बलं परावृत्य तदायातं मदन्तिकम् / पपात पुष्पवृष्टिश्च सुरैर्मुक्ता ममोपरि // 519 // आयातोऽथ पुरात् तातो नतं मूर्ध्नि चुचुम्ब माम् / शमयन्ती वियोगाग्निमम्बा च प्रमदाश्रुभिः // 520 // बन्दिभिर्गीयमानोऽथ मात्रा तातेन चान्वितः / प्रविष्टोऽहं पुरं स्वीयं मुदितै गरैः स्तुतः // 521 // गतोऽहं स्वीयमावासं स्थित्वा राजकुले क्षणम् / कृत्वा दैवसिकं कृत्यं निशि सुप्तः सुखालसः // 522 // अथैवं चिन्तयामि स्म तत्त्वज्ञानपराङ्मुखः / अहो ! वैश्वानरस्याऽयं प्रभावो भुवनाद्भुतः // 523 // यत्प्रभावान्मया लोके लब्धा जयपताकिका / अहो ! प्रभावो हिंसाया या दुर्धर्ष चकार माम् // 524 // एते मे परमो बन्धू एते परमदेवते / ध्रुवं मे निन्दकः शत्रुः सुहृत् श्लाघाकृदेतयोः // 525 // . ताताऽम्बादीनपृष्ट्वैव रात्रिशेषे ततो गतः / अटव्यां मारयामि स्म सत्त्वान् पापर्धिबद्धधीः // 526 // कृत्वाऽऽखेटकमायातः सन्ध्यायां भवने निजे / नायातः किं कुमारोऽद्य पिताऽथ विदुरं जगौ ? // 527 // स जगौ जामुषा वेश्म श्रुतं परिजनान्मया / आखेटकाय निश्येव कुमारः कानने गतः // 528 // पुनः पृष्टं कुमारः किमयैव मृगयाधिया / गतोऽटव्यां किमथवा यात्येष प्रतिवासरम् ? // 529 // जगौ परिजनो हिंसापाणिग्रहदिनोत्तरम् / पापर्द्धिमन्तरा कापि दिने न लभते धृतिम् / / 530 // तातोऽथ प्राह विदुर ! कुमारस्य न युज्यते / मृगयाव्यसनं पापमस्मद्वंश्यैरनादृतम् // 531 // भार्याऽपसार्या हिंसेयं तत् कुमारस्य पापभूः / विदुरः प्राह सा वैश्वानरवन्निरुपक्रमा // 532 // अथवा श्रूयते जैनः पुरेऽत्र पुनरागतः / नैमित्तिकः स एवात्र प्रष्टव्योऽर्थे रहस्यवित् // 533 // ततो राज्ञा स आहूतः प्रतिपत्तिः कृतोचिता / पृष्टं कथं कुमारोऽयं हिंसां त्यस्यति ? मे वद // 534 // जगाद नैमित्तिकपुङ्गवोऽथ गां पुरा गुणा यस्य मयोपवर्णिताः / शुभाशयस्याऽस्य महीपतेः प्रिया पुरा यथाऽभूत् स्थिरतोपवर्णिता // 535 // तैदङ्गजा क्षान्त्यपरा पराजिता जगद्वधू रूपगुणेन वर्तते / / महातमोग्रन्थिविदारिका शुभावतारिका नाम महोदयावहा // 536 // इयं जनानां हितकारिणी परा परार्थसम्पादनबद्धशुद्धधीः / प्रसादमस्या न विना क्रिया सतां फलान्विता स्याद् ध्रुवमिक्षुपुष्यवत् // 537 // 1. शीर्णाः सेनाभटाः सर्वे मद्वलात् प्रबलात् ततः / यवनस्य महावाताद् घनाघनघटा इव // 516 // 2. तथा प्रियतस्य परा परा // 3. "विदारणोयता प्रशान्तता नाम //