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________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 595 [मुक्तिस्वरूपमीमांसा] यदपि 'आत्यन्तिकबुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदविशिष्ट आत्मा मुक्तिः' इति तदप्यप्रमाणकम् / अथ तथाभूतमुक्तिप्रतिपादकं प्रमाणं विद्यते / तथाहि-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमच्छिद्यते, सन्तानत्वात, यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमच्छिद्यते, यथा प्रदीपसंतानः, तथा चायं सन्तानः, तस्मादत्यन्तमुच्छिद्यते इति / सन्तानत्वस्य च व्याप्त्या बुद्धयादिषु सम्भवात् पक्षधर्मतयाऽसिद्धताऽभावः। तत्समानर्धामणि मिणि प्रदीपादावुपलम्भादविरुद्धत्वम् / न च विपक्ष परमाण्वादावस्तोत्यनैकान्तिकत्वाभावः, विपरीतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षाऽऽगमयोरनुपलम्भाव न कालात्ययापदिष्टः, न चायं सत्प्रतिपक्ष इति पश्चरूपत्वात प्रमाणम् / / न च निर्हेतुकविनाशप्रतिषेधात सन्तानोच्छेदे हेतुर्वाच्यः यतः समुच्छिद्यत इति, तत्त्वज्ञानस्य विपर्ययज्ञानव्यवच्छेदकमेण निःश्रेयसहेतुत्वेन प्रतिपादनात् / उपलब्धं च सम्यग्ज्ञानस्य मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ सामर्थ्य शुक्तिकादौ-न च मिथ्याज्ञानेनाप्युत्तरकालभाविना सम्यग्ज्ञानस्य विरोधः सम्भवति, सन्तानोच्छितेविवक्षितत्वात् / यथा हि सम्यग्ज्ञानात् मिथ्याज्ञानसन्तानोच्छेदः नैवं मिथ्याज्ञानात् सम्यग्ज्ञानसन्तानस्य, तस्य सत्यार्थत्वेन बलीयस्त्वात्-निवृत्ते च मिथ्याज्ञाने तन्मूलत्वाद् रागादयो न भवन्ति कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादाद , रागाद्यभावे च तत्कार्या प्रवृत्तिावर्तते, तदभावे च धर्माऽधर्म :, आरब्धकार्ययोश्चोपभोगात् प्रक्षय इति, सञ्चितयोश्च तयोः प्रक्षयस्तत्त्वज्ञानादेव / तदुक्तम्[ भ० गी० 4-37 ] 'यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुते क्षणात् / ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात कुरुते तथा" | योर [ आत्मा की मुक्तावस्था कैसी होती है !] . न्यायमत में कहा जाता है कि आत्मा में से बुद्धि आदि विशेषगुणों का सर्वथा उच्छेद हो जाय ऐसी अवस्था से विशिष्ट आत्मा ही मुक्ति है / व्याख्याकार कहते हैं कि यह बात प्रमाणशून्य है। अब नैयायिक विद्वान् अपने मत का समर्थन करते हुए कहते हैं [विशेषगुणोच्छेदस्वरूपमुक्ति-नैयायिक पूर्वपक्ष ] .. पूर्वोक्त स्वरूप वाली मुक्ति का समर्थक अनुमान प्रमाण मौजुद है। देखिये-"आत्मा के नव विशेषगुणों ( बुद्धि-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-संस्कार-धर्म-अधर्म ) की परम्परा का सर्वथा विनाश भी होता है क्योंकि वह सन्तानात्मक है, जो जो सन्तानात्मक होता है उसका कभी सर्वथा ध्वंस होता ही है जैसे दीप का संतान, विशेष गुणों की परम्परा भी सन्तानात्मक है अतः उसका भी सर्वथा विनाश होता है ।"-इस अनुमान से मुक्तिदशावाले आत्मा में बुद्धि आदि का सर्वथा ध्वंस सिद्ध होता है / यहाँ हेतु में असिद्धि दोष नहीं है क्योंकि बुद्धि आदि विशेषगुणों में व्यापकरूप से सन्नातात्मकता सम्भवित है और प्रसिद्ध भी है अत: हेत सन्तानात्मकता बुद्धि आदि पक्ष में विद्यमान धर्म रूप हैं। हेतु में विरोध दोष भी नहीं है क्योंकि बुद्धि आदि पक्ष का समान धर्मी (यानी सपक्ष) रूप प्रदीपादि धर्मी में सन्तानात्मकता और सर्वथा ध्वस ये दोनों हेतु-साध्य का सामानाधिकरण्य प्रसिद्ध है। साध्य जहाँ नहीं है ऐसे विपक्षभूत परमाणु आदि में सन्तानात्मकता भी नहीं होती अत: हेतु में साध्यद्रोह का दोष भी नह दि सन्तान में साध्य से विपरीत अर्थ का प्रतिपादक कोई भी प्रत्यक्ष
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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