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________________ 580 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अन्यदेशस्यापि ध्यानादेरन्यस्थितविषाद्यपनयनकार्यकर्तृत्वस्योपलब्धिविषयत्वात् / तन्नातोऽपि सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वसिद्धिरित्यसिद्धो हेतुः / एतेन 'विभत्वात् महानाकाशः तथा चात्मा' इति निरस्तम् , विभुत्वस्यात्मन्यसिद्धेः / तथाहिसर्वमूतैर्युगपत्संयोगो विभुत्वम् / न च सर्वमूत्तिमद्भिर्युगपत्संयोगस्तस्य सिद्धः / अथक देशवृत्तिविशेषगुणाधारत्वात्तस्य सर्वमूत्तैर्युगपत्संयोग आकाशस्येव सिद्धः। असदेतत् , एकदेशवृत्तिविशेषगुणाधिष्ठानत्वस्य साधनस्य सर्वमूत्तिमत्संयोगाधारत्वस्य च साध्यस्याकाशेऽप्यसिद्धरुभयविकलो दृष्टान्तः / न चात्मदृष्टान्तादाकाशे साध्य-साधनोभयधर्मसम्बन्धित्वं सिद्धमिति शक्यं वक्तुम् , इतरेतराश्रयदोष. प्रसंगात् / [ सक्रियता के द्वारा अनित्यत्व की आपत्ति का निरसन ] यदि यह कहा जाय-आत्मा को सक्रिय मानेगे तो उसे अनित्य भी मानना पड़ेगा। देखिये'जो सक्रिय होता है वह अनित्य होता है, उदा० पत्थर आदि, आत्मा भी वैसा ही सक्रिय है अतः वह अनित्य है-इस अनुमान से आत्मा में अनित्यत्व को मानना होगा / तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि (1) परमाणु में अनित्यत्व नहीं है फिर भी सक्रियत्व है अतः हेतु साध्यद्रोही ठहरा। (2) यदि कथंचिद् अनित्यता को सिद्ध करना चाहते है तो वह हमारा इष्ट होने से सिद्धसाधन दोष लगेगा। अब आपको यदि सर्वांश से अनित्यत्व की सिद्धि करनी है तो दृष्टान्त भी साध्यशून्य हो जायेगा चूंकि पत्थर आदि में सर्वांश से अनित्यता असिद्ध है, ( हम मानते ही नहीं है।) साराँश, 'आत्मा के गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है' यह बात असिद्ध होने से पूर्वोक्त अनुमान में हेतु भो असिद्ध ठहरा / अन्य वादी 'आत्मा के गुण की सर्वत्र उपलब्धि' को निम्नोक्त अनुमान से सिद्ध करने को कोशिश करते हैं 'देवदत्त के उपकरणभूत मणि-मोती आदि जो अन्य द्वीप में उत्पन्न हुए हैं वे देवदत्तगुण जन्य हैं, कार्य होते हुए देवदत्त के उपकारी हैं इसलिये। उदा० बैलगाड़ी आदि / ' अब यह सोचना होगा कि अन्यद्वीप के मणि-मोती आदि से दूर रहे हुए देवदत्त के गुण उन मणि-मोती आदि का उत्पादन करने में समर्थ नहीं बन सकते / जैसे, वस्त्रोत्पत्ति देश से दूर रहे हुए तंतु-तुरी-जुलाहा आदि दूर देश में वस्त्र के उत्पादन में समर्थ नहीं बनते हैं। अत: सोचिये कि देवदत्त की आत्मा के गुण, अपने गुणी= आत्मा की व्यापकता के विना मणि-मोती वाले देश में कैसे सम्बद्ध हो सकेंगे? यदि वे स्वयं क्रियाशील बन कर वहाँ जायेगे तो सक्रिय होने से द्रव्यत्व आपन्न होगा और गुणत्व का भंग हो जायेगा / अतः देवदत्त की आत्मा को विभु मानेंगे तभो देवदत्त के गुण भी उन मणि-मोती वाले देश से सम्बद्ध हो सकते हैं। किन्तु यह अनुमान गलत है। देवदत्त के गुणों को दूरदेशवर्ती मणि-मोती के (निमित्त) कारण मान ले तो भी यह नियम दृष्टिगोचर नहीं है कि-'निमित्त कारण को कार्यदेश में अवश्य हाजिर रहना चाहिये'-जिससे कि देवदत्त की आत्मा को विभु मानने के लिये बाध्य होना पड़े। इस देश में कोई ध्यान लगाता है तो अन्य किसी देश में किसी का जहर उत्तर जाता है इस प्रकार दूसरेदेशवर्ती कार्य का कर्तृत्व भी दृष्टिगोचर होता है / निष्कर्ष, उपरोक्त अनुमान से भी 'आत्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध होते है' इस की सिद्धि नहीं होती है अतः हेतु असिद्ध ही रहा /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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