SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० आत्मविभुत्वे उ०पक्षः 577 भूतत्वे आत्मनः कथं तस्य ते' इति व्यपदेशः ? अथ तेषु तस्य वर्तनात् तथा व्यपदेशः, न सदेतत् ; तथाऽभ्युपगमेऽवयविपक्षभाविदूषणावकाशात् / यथा च तेषां सदूषणत्वं तथा प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते चेत्यास्तां तावत् / तन्न परस्य देवदत्तशब्दवाच्यः कश्चिदस्ति यं प्रत्युपसर्गणवन्तः पश्वादयः स्वक्रियाहेतोगुणत्वं साधयेयुः / अतो नैतदपि साधनमात्मनो विभुत्वप्रसाधकम् / यदपि 'सर्वगत आत्मा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् , आकाशवत्' इति साधनम् , तदप्यचारु, यतो यदि 'स्वशरीरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात्' इति हेतुस्तथा सति तत्रैव ततस्तस्य सर्वगतत्वसिद्धेविरुद्धो हेत्वाभासः। अथ स्वशरीरवत् परशरोरे अन्यत्र वोपलभ्यमानगुणत्वं हेतुस्तदाऽसिद्धः, तथोपलम्भाभावात्-न हि बुद्धयादयः तद्गुणास्तथोपलभ्यन्ते, अन्यथा सर्वसर्वज्ञताप्रसंगः / अथैकनगरे उपलब्धा बुद्धयादयो नगरान्तरेऽप्युपलभ्यन्ते, मनुष्यजन्मवज्जन्मान्तरेऽपीति कथं न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम् ? न, वायोरपि स्पर्शविशेषगुण एकत्रकदोपलब्धोऽन्यत्रान्यदोपलभ्यमानस्तस्यापि सर्वगतत्वं प्रसाधयेत् , अन्यथा तेनैव हेतोय॑भिचारः। अथ तांस्तान् देशान् क्रमेण गतस्य तस्य तद्गुण उपलभ्यते, आत्मनोऽपि तथैव तद्गुणस्योपलम्भ इति समानं पश्यामः / न च तद्वत् तस्यापि सक्रियत्वप्रसक्तेरयुक्तमेवं कल्पनमिति वाच्यम् , इष्टत्वात् / और उसीको 'देवदत्त' कहेंगे-तो फिर यहां भी काल्पनिकादिविकल्पों से पूर्ववत् दोष प्रसक्त होने से नये नये आत्मप्रदेशों की कल्पना करते रहने से अनवस्था दोष लगेगा। यदि फिर से ऐसा कहें किआत्मा के विना किसके वे प्रदेश माने जायेंगे यह प्रश्न होने से प्रदेशवाले किसी अन्य आत्मा का स्वीकार करना पडेगा-तो यहाँ भी प्रश्न तो होगा ही कि प्रदेशवाला आत्मा यदि उन प्रदेशों से अर्थान्तरभत होगा तो 'उसके ये प्रदेश' ऐसा व्यवहार कैसे हो सकेगा? यदि उन प्रदेशों में आत्मा के रहने के कारण 'उसके प्रदेश' ऐसा कहा जाय तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा उन प्रदेशों में अपने एक अंश से रहता है या सर्वांश से ? ऐसे विकल्पों से वे दोष लागु हो जायेंगे जो कि अवयवी वादी के मत में लागु होते हैं। एक अंश से या सर्वांश से वृत्ति मानने में जो दोष आते हैं उनका कथन पहले किया है और आगे भी किया जायेगा, अतः यहाँ इस बात को रहने दो। निष्कर्ष यह है कि नैयायिकादि के मत में देवदत्तादि शब्द का वाच्य ही कोई घट नहीं सकता, जिसके प्रति खिचे जाने वाले पशु आदि अपनी क्रिया के कारणभूत तत्त्व में गुणत्व की सिद्धि कर सके। सारांश, विभुत्व की आत्मा में सिद्धि करने के लिये प्रयुक्त हेतु स्वसाध्यसिद्धि के लिये समर्थ नहीं है / / सर्वत्र उपलभ्यमानगुणत्व हेतु विरुद्ध या असिद्ध ] यह जो किसी ने अनुमान कहा है-आत्मा सर्वगत है, क्यों कि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, जैसे आकाश ।-यह अनुमान भी बेकार है / कारण, 'आत्मा के गुण अपने शरीर में सर्वत्र उपलब्ध होते हैं'- इस अर्थ में यदि आपके हेतु का तात्पर्य हो, तब तो सिर्फ शरीर में ही आत्मा के सर्वगतत्व की सिद्धि होगी, अर्थात् विश्वव्यापकता के विरुद्ध सिर्फ देहव्यापकता साधक हेतु हेत्वाभास बन जायेगा / यदि हेतु का अर्थ यह हो कि-'अपने शरीर में जैसे आत्मा के गुण उपलब्ध होते हैं वैसे दूसरे के देह में अथवा अन्य किसी स्थान में भी उसके गुण उपलब्ध होते हैं'-तो यह बात असिद्ध है क्योंकि अपने आत्मा के गुणों की दूसरे के शरीर में उपलब्धि कभी नहीं होती। बुद्धि आदि आत्मा के गुण कभी भी अपने देह से अन्यत्र उपलब्ध होते हुए दिखाई नहीं देते, यदि सभी पदार्थों में आत्मा के बुद्धिगुण की उपलब्धि मानेंगे तो सभी आत्मा में सर्वज्ञता को भी मानना पड़ेगा।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy