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________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः यच्च 'यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पति' इत्युक्तम् तत्र कः पुनरसौ देवदत्तशब्दवाच्यः? यदि शरीरम् , तदा शरीरं प्रत्युपसर्पणात् शरीरगुणाकृष्टाः पश्वादयः इत्यात्मविशेषगुणाकृष्टत्वे साध्ये शरीरगुणाकृष्टत्वस्य साधनाद विरुद्धो हेतुः / अथात्मा, तस्य समाकृष्यमाणपदार्थदेश-कालाभ्यां सदाऽभिसम्बन्धाद् न तं प्रति कस्यचिदुपसर्पणम् , अन्यदेशं प्रत्यन्यदेशस्योपसर्गणदर्शनाद् अन्यकालं प्रत्यन्यकालस्य च, यथांकुरं प्रत्यपरापरशक्तिपरिणामप्राप्तेर्बीजादेः / न चैतदुभयं नित्यव्यापित्वाभ्यामात्मनि सर्वत्र सर्वदा सन्निहिते संभवति अतो 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः' इति धमिविशेषणम् , 'देवदत्तगुणाकृष्टाः' इति साध्यधर्मः 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति साधनधर्मः परस्य स्वरुचिरचितमेव / न च शरीरसंयुक्त आत्मा सः, तस्यापि नित्य व्यापित्वेन तत्र सन्निधानेनाऽनिवारणात् , . न हि घटयुक्तमाकाशं मेर्वादौ न संनिहितम् / सुगन्धि द्रव्यों को ग्रहण करते हैं उसी तरह स्त्री-आकर्षण अभिलाषी अंजनादि को ग्रहण करते हैं यह नहीं करेंगे / आकर्षण का सामर्थ्य अंजन में देखने पर भी उसमें कारणता की कल्पना का त्याग करके अन्य किसी में कारणता की कल्पना करेंगे तो फिर उस अन्य में भी कारणता न मानकर अन्य ही किसी में कारणता की कल्पना करते रहने में अनवस्था दोष आयेगा, उससे आपका छूटकारा कैसे होगा? यदि ऐसा,कहें कि-अंजनादि स्वतः आकर्षण का कारण नहीं है किन्तु अदृष्ट के सहकारीरूप में कारण है ।-तो इस रीति से अदृष्ट की तरह अंजन में भी आकर्षण की कारणता सिद्ध हो गयी। फलतः इस संदेह को अब पूरी तरह अवकाश है कि प्रयत्नसमानधर्मी गुण से पशु आदि का देवदत्त की ओर आकर्षण होता है ? या स्त्री आदि स्थल के समान अंजनादिसमानधर्मी आत्मसंयुक्त द्रव्य से होता है ? निष्कर्ष, 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इस हेतु में गुणत्व अदृष्ट में संदिग्ध है / तथा, हमारे जैन मत में. आत्मा में प्रयत्न का सद्भाव भी स्पन्दनशील आत्मप्रदेशों के विना संभव नहीं है अतः कवलादि. आकर्षणहेतुभूत देवदत्तविशेषगुणात्मक प्रयत्न भी हमारे मत में असिद्ध है इसलिये आपका दृष्टान्त साध्यविकल हो जाता है। [न्यायमत में देवदत्त शब्द के वाच्यार्थं की अनुपपत्ति ] तदपरांत आपने देवदत्त की ओर जिसका संचार होता है....इत्यादि जो कहा है उसमें देवदत्त शब्द से वाच्य कौन है ? A देवदत्त का शरीर या B आत्मा ? A यदि देवदत्त का शरीर 'देवदत्त' पद का अर्थ है तो आपके कथित अनुमान में पशु आदि, 'देवदत्त की यानी शरीर की ओर खिचे जाते हैं' इस हेतू से शरीरगुणाकृष्ट हुए। इस प्रकार आत्मविशेषगुणाकृष्टत्व की सिद्धि में प्रयुक्त हेत से शरीरगुणाकृष्टत्व सिद्ध होने पर हेतु विरुद्ध साबित हुआ। B यदि 'देवदत्त' पद का अर्थ देवदत्त की आत्मा-ऐसा किया जाय तो (आत्मव्यापकत्वमत में) आकृष्ट होने वाले पदार्थ से सर्वदेश सर्व काल में सदा के लिये आत्मा तो सम्बद्ध है, अत: उसकी ओर किसी का भी संचरण शक्य नहीं है। भिन्न देश में रहे हए पदार्थ की ओर भिन्न देशवी अन्य पदार्थ का संचरण शक्य है, तथा भिन्न कालवर्ती पदार्थ की ओर भिन्न कालवर्ती पदार्थ का संचरण हो सकता है जैसे कि अंकुरावस्था की ओर अपरअपर शक्ति परिणाम की प्राप्ति से आगे बढ़ने वाला बीज / किन्तु आत्मा तो न्यायमत में नित्य और व्यापक होने से सर्वत्र सर्वदा संनिहित है अतः दैशिक या कालिक संचार किसी भी तरह संभवित नहीं के तात्पर्य, 'देवदत्त की ओर खिचे जाने वाले' ऐसा धमिविशेषण, 'देवदत्तगुण से आकृष्ट' यह साध्य
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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